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सर्वत्र सत्य ही
गुरुवाणी-१ वर्णन उसके सामने कर दिया। बहू धर्मिष्ठ थी। उसने सोचा - इस अनीति के पैसे से ही इस घर से बीमारी पिण्ड नहीं छोड़ती है और पूरा खाने को भी नहीं मिलता है, इसीलिए उसने अपने ससुरजी से कहा - आप न्यायपूर्वक व्यापार करें। अपने घर में अनीति का धन आ रहा है इसीलिए घर में क्लेश ही क्लेश है, शान्ति नहीं है। बहू की बात सेठ के गले उतर गई और उसने नीति से व्यापार करना प्रारम्भ किया। चारों ओर उस सेठ की प्रामाणिकता की प्रशंसा होने लगी। ग्राहक बढ़े और कुछ ही समय के भीतर वह वास्तविक रूप में सेठ बन गया। परिवार भी बढ़ने लगा और सुख ही सुख छा गया। सेठ को यह विश्वास हो गया कि यह बहू सुलक्षणी है। इसके इस घर में कदम रखने से परिवार और धन बढ़ा है, मान-सम्मान भी बढ़ा है। एक समय बहू ने कहा - पिताजी, आप एक सोने की पाँचसेरी बनाओ। उस पर सच्चा सेठ अंकित करो और उसको बाजार के बीच में छोड़ दो, फिर देखो, इस नीतिपूर्ण धन का कमाल! सेठ ने उसी प्रकार किया। उसी समय एक व्यक्ति दौड़ता हुआ उसके पास आया और कहने लगा - हे सेठ! ये आपकी पाँचसेरी बाजार के बीच में पड़ी हुई थी, उसके ऊपर आपका नाम भी लिखा है अतः इसे आप संभालो। दूसरी बार पुनः परीक्षण हेतु सेठ ने उस पाँचसेरी को तालाब में फेंक दी। मच्छ निगल गया। मच्छीमार जाल में उसको पकड़ कर घर ले जाता है और मार देता है। मच्छ के पेट में से वही पाँचसेरी निकलती है। उसके ऊपर का नाम पढ़ता है और वह दौड़कर सेठ के पास आकर कहता है - हे सेठ! यह आपकी पाँचसेरी है, आप इसे वापस लो। देखो, कैसे नीतिपूर्वक कमाया हुआ धन वापस कहीं ना कहीं से अपने स्थान पर आ ही जाता है । सेठ को नीति पूर्वक व्यापार में विश्वास हुआ और वह अत्यन्त सुखी भी हुआ।
| मनुष्य कुछ लेकर आता नहीं है और कुछ | | लेकर जाता नहीं है, केवल पुण्य, | पाप को ही साथ ले जाता है। -
Nagawesom
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