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________________ गुरुवाणी - १ ८४ श्रावक की व्याख्या .... संस्कृत में श्रु नाम की धातु है उसको णक् प्रत्यय लगाने से उसकी वृद्धि, श्रु + णक् - श्रौ + अक श्रावक, शृणोति इति श्रावक:, जो सर्वदा जिनवाणी को सुनता है वह श्रावक कहलाता है । सर्वदा नियमित रूप से जिनवाणी क्यों सुननी चाहिए ? मनुष्य को जब रोग होता है वह नियमित रूप से दवा का सेवन करता है । इसी प्रकार हम भी राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि कितने ही रोगों से ग्रस्त हैं । इन समस्त रोगों का औषध है शास्त्र - श्रवण । औषध का नित्य पान करना होता है, बीच में यदि छोड़ देते हैं तो वह औषध फलदायी नहीं होती है। नोरवेल - जिनवाणी.... साँप और नौलिया जब आमने-सामने होते हैं तो आपस में खूब झगड़ते है। साँप उसको काटता है और नौलिया भी उसको काटता है। जब साँप नौलिया को काटता है तब वह भागकर नोरवेल नाम की वनस्पति के पास जाकर उसको सूंघ कर आता है। नौलिया समझता है उस वनस्पति को सूंघने से जहर का नाश होता है । इस प्रकार जहर उतारकर पुन: लड़ने के लिए आता है । इस प्रकार वे आपस में बारम्बार लड़ते हैं और आखिर में सर्प को वह मार डालता है। हमारे शरीर में भी प्रतिक्षण इन्द्रियों द्वारा विष चढ़ता रहता है। कान से सुनें तब भी और आंख से देखें तब भी विष चढ़ता है। किसी का सुख देखकर हमारे मन में भी लालसा उत्पन्न होती है और जब तक उस प्रकार का सुख प्राप्त नहीं कर लेते तब तक हमारे जीवन में शान्ति नहीं आ पाती । दूसरे की वस्तुओं को देखकर उसको प्राप्त करने की हमारी भी अभिलाषा होती है । परन्तु, किसी दिन साधु का वेश देखकर कभी ऐसा भी विचार आता है कि हम कब साधु बनेंगे। साधु का सुख तो संसार के सुख की अपेक्षा अनेक गुणा है। इस सुख की किसी दिन इच्छा होती है? समस्त सम्पूर्ण शरीर - धर्म योग्य है
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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