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________________ ८२ सम्पूर्ण शरीर - धर्म योग्य है गुरुवाणी-१ करने के लिए नगर के समस्त वैद्य और हकीम चिकित्सा में लग गए किन्तु किसी का भी उपचार लागू नहीं हुआ। माता-पिता रोने लगे। मेरी तरुण पत्नी भी रोने लगी, किन्तु मेरी वेदना में कोई भी भागीदार नहीं बन सका। वेदना में मैं तड़फता रहा। अन्त में मेरे मन में यह विचार जाग्रत हुआ- यह संसार असहाय है। कोई किसी के दुःख में साथीदार नहीं बन सकता। जीव ने जिस प्रकार के कर्म बांधे है उसे उसी रूप में भोगने पड़ते हैं। जो कर्ज(ऋण) लेता है वह ऋण उसे ही चुकाना पड़ता है। मेरा कोई नाथ/स्वामी नहीं है। मुझे विचार आया कि जीवन में सच्चा नाथ कौन है? स्मरण में अंतिम, भूलने में पहला .... जब हमारे ऊपर दुःख का पहाड़ टूट पड़ता है तब हम भगवान् को याद करते हैं। मनुष्य जीवन में भगवान् को कब याद करते हैं? सबसे पहले अथवा सबके अन्त में? जब हम चारों ओर से आधारहीन हो जाते हैं उस दशा में भगवान् को याद करते हैं और जब आधि, व्याधि, उपाधि दूर हो जाती है तो हम सबसे पहले किसको भूलते हैं? भगवान् को। स्मरण करते हैं सबके अन्त में और भूलते हैं सबसे पहले। इसी कारण भगवान् के साथ हमारा सम्बन्ध जुड़ नहीं पाता। चण्डकौशिक जब भगवान् को काटने के लिए आता है तो सबसे पहले भगवान् के समक्ष दृष्टि फेंकता है। कुछ भी प्रभाव नहीं होता है तो वह सूर्य के सन्मुख देखकर दृष्टि डालता है, फिर भी कुछ नहीं होता है। अन्त में वह काटता है किन्तु उसी समय चमत्कार होता है । इतने-इतने मारने के उपाय करने पर भी उसके ऊपर भगवान् की कैसी करुणा! बुज्झ-बुझ चण्डकोशिया।हे चण्डकौशिक ! समझ-समझ । प्रेम से भीगे हुए कैसे उद्गार निकलते हैं कि क्रोधी से क्रोधी और जहरी से जहरी सर्प भी स्तंभित हो जाता है। वह चण्डकौशिक अनशन स्वीकार करके स्वर्ग में पहुँच जाता है। ऐसे भयंकर विषधर के सामने जाकर भी
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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