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सम्पूर्ण शरीर - धर्म योग्य है
युवावस्था धर्म के लिए है ..
श्रावण सुदि ७
धर्म योग्य बनने का दूसरा गुण है- पाँचों इन्द्रियों से परिपूर्ण
होना ।
एक ओर धर्म करते हैं और दूसरी तरफ कटु शब्दों द्वारा दूसरों के हृदय को वींध देते हैं । यह किस प्रकार का धर्म है? धर्म करने वाला व्यक्ति तो कैसा मधुरभाषी और सौम्य होता है। जिसके अंगोपांग पूर्ण होते हैं वह मनुष्य धर्म के योग्य होता है। लूला, लंगड़ा धर्म तो कर सकता है किन्तु सम्पूर्ण अंगोपांग वाला मनुष्य जो भी धर्म करता है उसका आनन्द भिन्न प्रकार का ही होता है । महापुरुष कहते हैं कि जब तक वृद्धावस्था नहीं आती तब तक धर्म कर लो। जिस प्रकार व्यापार-वाणिज्य करने के लिए यौवनवय ही बहुत अच्छा होता है, किन्तु व्यापार तो एक सामान्य वस्तु है। जबकि धर्म जैसी महान् वस्तु प्राप्त करने के लिए यौवनवय बहुत उपयोगी है। आज मनुष्य यह मानता है कि धर्म तो ठेठ पिछली अवस्था में ही करना चाहिए। इस काल में मनुष्य धन के पीछे पागल बना हुआ है । वह धर्म को पूर्णत: भूल जाता है । समस्त कर्मों में अधिक हिस्सा वेदनीय कर्म का ही रहता है। केवलज्ञानी होने पर भी उसको सारे दिन में ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि मैं केवलज्ञानी हूँ। जबकि मनुष्य वेदनीय कर्म भोग रहा हो तो उसे क्षण-क्षण में वह वेदनीय कर्म अपनी याद दिलाता रहता है। शरीर में तनिक सी भी वेदना उत्पन्न हो जाए और मन उसी को सहन करने में लगा रहे तो बताइए भगवान् की भक्ति कैसे हो सकती है? अधिकांशतः वृद्धावस्था में ही वेदनीय कर्म प्रबल होता है ।