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________________ ७६ सूत्र संवेदना - ५ अणिमादि लब्धियाँ और आमर्षोषधि आदि ऋद्धियाँ प्रभु को प्राप्त होती हैं । अपेक्षा रहित पराक्रम करनेवाले प्रभु इन लब्धियों का उपयोग कभी नहीं करते । परीषहों और उपसर्गों को समभाव से सहन कर, घनघाती कर्मों का नाश करके केवलज्ञान प्रकट करते हैं । लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्रकट होते ही प्रभु को तीर्थंकर नामकर्म का विपाकोदय शुरू होता है। परिणाम स्वरूप कर्मक्षय से होनेवाले ११ अतिशय और देवों द्वारा किए गए १९ अतिशय प्रगट होते हैं । कर्मक्षय कृत ११ अतिशयों के कारण प्रभु जहाँ विचरण करते हैं, वहाँ मात्र एक योजन में करोड़ों देवता समाविष्ट हो जाते हैं, उनकी वाणी सभी भाषाओं में परिवर्तित होकर देव-नर- तिर्यंच सभी को प्रतिबोधित करती है, उनके सिर के पीछे भामंडल शोभायमान होता है' और १२५ योजन तक रोग, वैर', ईर्ति, महामारी", अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुष्काल" या स्वचक्र - परचक्र का भय दूर होता है । । दीक्षा लेने के बाद 1 इसके उपरांत परमात्मा के गुणों से आकर्षित देवता परमात्मा की भक्ति स्वरूप १९ अतिशयों को प्रकट करते हैं। कम से कम करोड़ देवता प्रभु की सेवा में हर पल उपस्थित रहते हैं प्रभु के मस्तक के बाल, शरीर के रोम, नाखून, दाढ़ी या मूँछ बढ़ते नहीं हैं । जहाँ पैर रखें वहाँ मक्खन से भी मुलायम नौ सुवर्ण कमलों की रचना, सुवर्ण-रजत एवं रत्नों से सुशोभित तीन गढ तथा प्रभु की तीन रूपों सहित समवसरण की रचना', धर्मचक्र', चामर", पादपीठ', तीन छत्र', रत्नमय ध्वज", अशोकवृक्ष", सुगंधी जलर और पुष्पों की वृष्टि, दुंदुभि नाद", उल्टे काँटें", झुके हुए वृक्ष, अनुकूल पवन", प्रदक्षिणा देते हुए पक्षी", सभी अनुकूल ऋतुएँ" वगैरह अनेक प्रकार के विस्मयकारी देवकृत १९ अतिशय भी प्रभु की ही संपत्ति हैं ।
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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