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प्रकाशन के पलों में.... उपकारी तत्त्वों का आभार व्यक्त करने का पुनः जो सौभाग्य मिला है उसका आनंद है । सूत्र संवेदना के लिखे जाने में स्वयं मेरा कह सके वैसा लगभग कुछ नहीं ।
कुछ कर्मराजा की मृदु भावनाएँ कि गणधर भगवंतों के शब्दों के रहस्य समझने के संयोग प्रदान किए, कुछ बड़ों के पास से प्राप्त हुआ क्रिया करने की संस्कार-बिरासत, कुछ महापुरुषों के समागम से मिलती रहती समझ, कुछ पूज्यों और सहाध्यायिओं की प्रेरणा, कुछ आप्तपुरुषों का सहकार, कुछ जिज्ञासु पाठकों का आग्रह... । सूत्र संवेदना के सर्जन में इन सारे घटकों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है - इन सबका जितना आभार मानूं उतना कम है ।
नवकार महामंत्र से प्रारंभित यह यात्रा, इस भाग में आगे बढ़कर, दो प्रतिक्रमण के सूत्रों पर प्रकाश डाल कर 'सकलतीर्थ वंदना सूत्र' पर थोड़ा विराम ले रही है । आगे की यात्रा : सूत्र संवेदना-६-७ में अन्य सूत्रों के साथ प्रतिक्रमण की विधि एवं हेतुओं की संवेदना प्रकाशित की जाएगी ।
पूर्व की तरह, इन सब के मूल में मेरे धर्म पिता तुल्य, वर्धमान तपोनिधि प. पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय गुणयशसूरीश्वरजी महाराजा हैं । धर्म के संस्कारों का सिंचन कर उन्होंने व्याख्यान वाचस्पति तपागच्छाधिराज भावाचार्य भगवंत प.पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी महाराजा से मेरी भेंट करवाई। सन्मार्ग पर मेरा प्रारंभ, इस सुयोग से हुआ । इन पूज्य के सहृदय सूचन से मुझे मेरी परमोपकारी गुरुवर्या शताधिक शिष्याओं की योमक्षेमकारिका परमविदुषी पू.सा.श्री चन्द्राननाश्रीजी म.सा. कुशल मार्गसूचिका के स्वरूप में मिलें । उपकारिओं के आशीर्वाद और सूचना से लिखने का प्रारंभ किया । फल आपके हाथ में है ।