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सूत्र संवेदना-५ स्तव के फल का ऐसा निर्देश सत्तरहवीं गाथा में किया गया है और उसके साथ ही स्तवकार ने वहाँ अपने नामोल्लेख द्वारा स्वयं को भी यह सुख मिलें, ऐसी भावना व्यक्त की है। भगवद् भक्ति और जैनशासन का महत्त्व :
अंतिम दो गाथाओं में परमात्मा की भक्ति का फल और जैनशासन का महत्त्व बताया गया है।
इस अतिप्राचीन स्तव की रचना प्रभु महावीर की १९वीं पाट पर बिराजमान प.पू. मानदेवसूरीश्वरजी महाराज ने की है । इसके ऊपर मुख्य रूप से दो टीकाएँ तथा अवचूरि मिलती है । उसमें से यहाँ विवेचन करते हुए जहाँ-जहाँ ज़रूरत पड़ी वहाँ-वहाँ प.पू. हर्षकीर्तिसूरीश्वरजी महाराज की टीका का सहारा लिया गया है ।
इस मंत्रमय एवं चमत्कारिक स्तवन का मनन-परिशीलन अति कल्याणकारी होता है । मूल सूत्र :
शान्तिं शान्तिनिशान्तं, शान्तं शान्ताशिवं नमस्कृत्य । स्तोतुः शान्तिनिमित्तं, मन्त्रपदैः शान्तये स्तौमि ।।१।। ओमिति निश्चितवचसे, नमो नमो भगवतेऽर्हते पूजाम् । शान्तिजिनाय जयवते, यशस्विने स्वामिने दमिनाम् ।।२।। सकलातिशेषक-महा-सम्पत्ति-समन्विताय शस्याय । त्रैलोक्यपूजिताय च, नमो नमः शान्तिदेवाय ।।३।। सर्वामरसुसमूह-स्वामिक-सम्पूजिताय न जिताय । भुवनजनपालनोद्यततमाय सततं नमस्तस्मै ।।४।।