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________________ सूत्र संवेदना-५ 4अक्खुयायार -चरित्ता - अक्षत आचार रूप चारित्रवाले । १८,००० शीलांग के पालन से चारित्र रूप रथ के अंगों की उत्पत्ति होती है । १८,००० में से एक भी अंग का स्खलन होने से चारित्ररूपी रथ अखंड नहीं रहता । यहाँ वैसे साधुओं की वंदना की गई है जिन्होंने क्षमादि दस यतिधर्म वगैरह का पूर्ण रूप से पालनकर संयमरूप रथ अखंडित रखा है। ते सव्वे सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि - उन सबको सिर झुकाकर मन और मस्तक द्वारा मैं वंदन करता हूँ । अखंड रूप से चारित्र का पालन करनेवाले उन महात्माओं को मस्तक से (काया से) अंतः करणपूर्वक (मन से) और 'मत्थएण वंदामि' ऐसी वाणी बोलकर नमस्कार करता हूँ। शास्त्र में कहा गया है कि संयम का पालन, मोम के दाँत से लोहे के चने चबाने जैसा अथवा मेरु के महाभार को वहन करने जैसा कठीन है । जब एक दिन या एक घंटे मात्र के लिए भी क्षमा रखने के लिए मन-वचन-काया पर नियंत्रण रखना कठिन हो जाता है, तब शास्त्र की यह उपमा अत्यंत उचित लगती है । संयमी आत्मा को तो मात्र क्षमा ही नहीं, बल्कि दस यतिधर्म, पाँच महाव्रत और समितिगुप्ति का सतत पालन, पाँच इन्द्रिय और चार संज्ञा के ऊपर सतत नियंत्रण और मन, वचन, काया से कहीं भी पाप प्रवृत्ति न हो जाए - इसका सतत ध्यान रखना होता है। मन के नियंत्रण के बिना, वाणी के 4. अक्षताचार एव चारित्रं - आवश्यक नियुक्ति (हारिभद्रीय वृत्ति) में अक्खयायार ऐसा भी पाठ है, परन्तु प्रचलित अक्खुयायार है और उसमें खु वर्ण आर्ष प्रयोग में होगा ऐसा लगता है ।
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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