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________________ ४८ सूत्र संवेदना-५ शील का अर्थ है चारित्र और अंग का अर्थ है अवयव । चारित्ररूपी रथ के १८,००० अवयव (विभाग) हैं । सभी अवयवों से युक्त चारित्र रूप अवयवी पूर्ण गिना जाता है । भाव से संयम जीवन का स्वीकार करनेवाले मुनि भगवंत १. क्षमा, २. मार्दव, ३. आर्जव, ४. मुक्ति, ५. तप, ६. संयम, ७. सत्य, ८. शौच, ९. अकिंचनत्व और १०. ब्रह्मचर्य नामक दस यतिधर्म का पालन करनेवाले होते हैं। __ दस प्रकार के यतिधर्म का आचरण करनेवाले मुनि निम्नलिखित दस समारंभो का त्याग करते है : १. पृथ्वीकाय- समारंभ, २. अप्काय-समारंभ, ३. तेजस्काय-समारंभ, ४. वायुकाय समारंभ, ५. वनस्पतिकाय-समारंभ, ६. द्वीन्द्रिय-समारंभ, ७. त्रीन्द्रिय-समारंभ, ८. चतुरिन्द्रिय-समारंभ ९. पंचेन्द्रिय-समारंभ, १०. अजीव-समारंभ (अजीव में जीव का बोध करके) उपरोक्त १० यतिधर्म के पालन द्वारा मुनि जब इन १० समारंभो का त्याग करता है, तब शील के १०० (१० x १०) अंगो को धारण करता है। यति धर्म से युक्त होकर उपरोक्त १० विषय में जयणा का पालन पाँच इन्द्रियों की अधीनता से एवं चार कषाय से मुक्त होकर करनी है । इससे (१०० x ५ x ४) = २००० शील के अंग हुए । __पुनः मुनिवर इन २००० अंग का पालन मन-वचन-काया स्वरूप तीन योगों से एवं करण, करावण, अनुमोदन स्वरूप तीनों करण से करते है । अतः वे (२००० x ३ x ३) १८००० शीलांग के धारक कहे जाते है ।
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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