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सूत्र संवेदना-५ रयहरणगुच्छपडिग्गहधारा - रजोहरण, गुच्छा और पात्रों को धारण करनेवाले।
जो रज का हरण करे, उसे रजोहरण (ओघा) कहा जाता है । रजोहरण द्रव्य से बाह्य रज को दूर करता है और भावपूर्वक किया गया उसका उपयोग आत्मा के ऊपर लगी कर्मरज को दूर करता है । कोमल ऊन से बना हुआ यह रजोहरण हिंसा, झूठ, चोरी आदि सभी पापों का त्याग करके संयमी बनी हुई आत्मा का लक्षण है ।
२४ अंगुल की दांडी और ८अंगुल लंबी दशी मिलाकर कुल ३२ अंगुल के प्रमाण उसकी लंबाई होती है । भूमि जब सचित्त रज से युक्त या जीवाकुल हो तब महात्मा अत्यंत यतनापूर्वक हल्के हाथों से किसी भी जीव को पीड़ा न हो ऐसे परिणामपूर्वक रजोहरण से उस का प्रमार्जन करने के बाद ही उस के ऊपर स्वाध्याय, ध्यान आदि करते हैं ।
गुच्छ=गुच्छा। पंच महाव्रतधारी महात्मा आहार के लिए काष्ठ के पात्र रखते हैं। जयणा (सावधानी) के लिए उस पात्र के ऊपर जो ऊन का वस्त्र रखा जाता है, उसे गुच्छा (गोच्छक) कहा जाता है। जो पात्रपरिकर की एक वस्तु है।।
पडिग्गह = पतद्ग्रह। गिरते आहार को जो ग्रहण करे-धारण करे, उसे पतद्ग्रह या पात्र कहते हैं। अपरिग्रह व्रतवाले संयमी साधक 2. पात्र संबंधी सात उपकरणों को पात्र-नियोग अथवा पात्र-परिकर कहा जाता है। उसमें
१. पात्रा, २. पात्र-बन्ध (झोली), ३. पात्र-स्थापन (पात्रा का पडिलेहण आदि करते वक्त पात्र को रखने के लिए ऊनी कपड़ा-पात्रा का कंबल), ४. पात्र-केसरिका (पूंजणी), ५. पडला (भिक्षा के अवसर पर पात्र को ढकने का वस्त्र) ६. रजस्रण (धूल से रक्षण करनेवाला सूती वस्त्र जिससे पात्र को लपेटा जाता है और ७. गोच्छक (झोली में पात्र को बाँधने के बाद ऊपर के भाग को ढ़कने में उपयोगी ऊनी वस्त्र) ये सात उपकरण पात्र संबंधी होते हैं ।