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श्रुतदेवता की स्तुति यह सूत्र आवश्यक सूत्र की चूर्णि, प्रवचनसारोद्धार आदि ग्रंथों में देखने को मिलता है । मूल सूत्र:
सुअदेवया भगवई, नाणावरणीअ-कम्मसंघायं।
तेसिं खवेउ सययं, जेसिं सुअसायरे भत्ती।।१।।
पद-४, गाथा-१, संपदा-४, गुरुअक्षर-२, लघुअक्षर-३५, कुलअक्षर-३७ अन्वय सहित संस्कृत छाया और शब्दार्थ : भगवई सुअदेवया जेसिं सुअसायरे भत्ती । तेसिं नाणावरणीयकम्मसंघायं सययं खवेउ।।१।। भगवती श्रुतदेवता ! येषां श्रुतसागरे भक्तिः । तेषां ज्ञानावरणीय-कर्मसंघातं सततं क्षपयतु।।
भगवती श्रुतदेवी' ! जिनकी श्रुतसागर के प्रति अत्यंत भक्ति है, उनके ज्ञानावरणीय कर्म के समूह का आप सतत नाश करें । विशेषार्थ :
धागे में अच्छी तरह से पिरोए मोती की तरह अच्छी तरह गूंथे हुए भगवान के वचन को सूत्र या शास्त्र कहते हैं । इसके सहारे जीवों को जिस आत्म हितकर ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है, उस ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा जाता है। श्रुत के प्रति जिसके हृदय में प्रगाढ़ भक्ति है, तीव्र आदर है और जो द्वादशांगी आदि श्रुत की अधिष्ठायिका है, उस देवी को श्रुतदेवी कहते हैं । श्रुत के प्रति भक्ति और सम्यग्दर्शन आदि
1. श्रुतदेवी कौन है ? इस बात की विशेष समझ के लिए 'सूत्र संवेदना' भाग-२, सूत्रः
कल्लाण कंद-संसारदावा सूत्र गा-४ देखें । श्रुतदेवी का दूसरा अर्थ : श्रुत-प्रवचन और वही देवता है । उसे उद्देश्य बनाकर साधक कहता है, 'हे प्रवचन देवी ! जिसे प्रवचन में भक्ति है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म का आप नाश करें ।'