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________________ २८ सूत्र संवेदना-५ अन्वय कलङ्क-निर्मुक्तम्, अमुक्तपूर्णतम्, कुतर्कराहुग्रसनं सदोदयम् अपूर्वचन्द्रम् बुधैर्नमस्कृतम्, जिनचन्द्रभाषितं दिनागमे नौमि ।।३।। गाथार्थ : जो कलंक से रहित है, पूर्णता को जो छोड़ता नहीं, जो कुतर्क रूपी राहु को निगल जाता है, जो हमेशा के लिए उदयान्वित रहता है, जो जिनचंद्र की वाणी रूप सुधा से बना हुआ है और पंडित जिसे नमस्कार करते हैं, उस आगमरूपी अपूर्व चन्द्र की मैं प्रातःकाल में स्तुति करता हूँ ।।३।। विशेषार्थ : जिस प्रकार चंद्र गर्मी को शांत करके शीतलता देता है और सौम्य प्रकाश फैलाता है, उसी प्रकार जिनागम भी कषायों की गर्मी को शांत करता है और ज्ञान का प्रकाश फैलाता है । इसलिए उसकी चन्द्र के साथ तुलना की गई है, परन्तु जिनागम में चंद्र जैसा कोई कलंक नहीं है इसलिए सूत्रकार कहते हैं कि वह चंद्र से भी कई अधिक है । चंद्र कलंक से युक्त है जब कि सर्वज्ञ कथित श्रुतराशिरूप चंद्र में किसी भी प्रकार का कलंक नहीं है । इसलिए स्वदर्शन के रागी तो ठीक परन्तु मध्यस्थदृष्टि से युक्त कोई परवादी भी उसमें दोष नहीं खोज सकता। चंद्र तो कृष्ण पक्ष में क्षीण क्षीणतर होता जाता है जब कि जिनागम रूपी चंद्र तो हमेशा सभी काल में खिलता ही रहता है। कभी किसी क्षेत्र में या किसी व्यक्ति को लेकर आगम में चढ़ाव-उतार दिख सकता है, पर समष्टिगत विचार करें तो आगम हमेशा पूर्ण रूप से खिला हुआ रहता है क्योंकि, कहीं न कहीं कोई न कोई श्रुतकेवली चौदह पूर्वधर होते ही हैं । इसके अतिरिक्त, आकाश के चंद्र को तो कभी राहु निगल जाता है, जब कि श्रुतरूपी शीतांशु तो कुतर्करूपी राहु को ही निगल जाता
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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