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सूत्र संवेदना - ५
गर्भ में आने से माता को १४ स्वप्नों के दर्शन हुए । जन्म होने के बाद छप्पन दिक्कुमारिकाओं द्वारा जन्ममहोत्सव और फिर असंख्य देवों द्वारा मेरु पर्वत के ऊपर जन्माभिषेक हुआ । जब यहाँ भरत क्षेत्र में २० वें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान का शासन चल रहा था तब ८३ लाख वर्ष के सीमंधर स्वामी आदि २० विहरमानों ने दीक्षा ली। उसके बाद उग्र चारित्र का पालन करते हुए १००० वर्ष बीतने पर घनघातिकर्म का नाश करने पर इन बीस तीर्थंकरों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। उसके बाद अष्ट महाप्रातिहार्य, समवसरण की रचना आदि से सुशोभित इन बीसों तीर्थंकरों ने ८४ महात्माओं को त्रिपदी दी, जिसके आधार पर उन महात्माओं ने द्वादशांगी की रचना की और प्रभु ने उन्हें गणधर पद पर स्थापित किया । इन बीस विहरमान जिनों के परिवार में ८४ गणधर और १०,००,००० (दस लाख) केवलज्ञानी मुनि तथा १ अबज साधु-साध्वीजी भगवंत हैं ।
यह पद बोलते हुए उन बीस विहरमान परमात्माओं को याद करना है । उसके साथ ही मन में सुवर्ण कमल के ऊपर पदन्यास करते हुए प्रभुजी विचर रहे हैं, सिर पर छत्र है, साथ ही चामरधारी देवता, अनेक गणधर, साधु-साध्वी, केवली भगवंत, श्रावक, श्राविकाओं का परिवार आदि अलौकिक ऋद्धिसमृद्धि है, एसा चित्र उपस्थित करना चाहिए । यह सब स्मृतिट पर लाकर बीस विहरमान भगवंतों को, १६८० गणधर भगवंत को, २,००,००,००० (दो करोड़) केवलज्ञानी भगवंतों को २० अबज साधु-साध्वी को भावपूर्वक दो हाथ जोड़कर वंदन करना चाहिए।
इन सभी तीर्थंकरों का देह सुनहरे रंग का और देह का प्रमाण ५०० धनुष्य का होता है ।
यह पद बोलते हुए महाऋद्धि और समृद्धि से युक्त विहरमान भगवंतों को मन में लाकर उनकी वंदना करते हुए साधक को सोचना चाहिए कि,