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________________ सकलतीर्थ वंदना २८९ यह गाथा बोलते हुए साधक अधोलोक का दृश्य उपस्थित करके उन सर्जनातीत, संख्यातीत और शब्दातीत स्थापना जिन को स्मृतिपट पर अंकित करके भावपूर्वक दो हाथ जोड़कर, मस्तक झुकाकर वहाँ के सभी जिनबिंबों की वंदना करते हुए सोचता है कि, “शत्रुजय, देलवाडा, राणकपुर के चैत्य तो मानवों ने बनाए हैं, जब कि ये शाश्वत चैत्य तो सर्जनातीत हैं। मानवों के संगमरमर से बनाए हुए चैत्य देखने पर भी अहो ! अहो ! के उद्गार मुँह से झरने लगते हैं, तो ये सोने-चाँदी-रत्ल के चैत्यों को देखते हुए कैसे भाव आते होंगे। कहाँ यहाँ की संगमरमर की प्रतिमाएँ और कहाँ वहाँ की हीरा-माणिक रत्नों से जड़ित सोने की प्रतिमाएँ । यहाँ के चैत्य कितने भी सुंदर हों तो भी उनमें सब चीजें पत्थर, लकड़ी, ईंट, चूना और मिट्टी की हैं, जब कि वहाँ तो खंभे हों या कांगरे, छत हो या तल, तोरण हो या झूमर, टेबल हो या डिब्बे, दीवार हो या दरवाजें, सभी रत्नों, सोने और हीरे-माणिक से जड़े होते हैं। संध्या के समय यदि दीपक की जगमगाहट में तारंगा के दादा का दर्शन मन को आह्लादित कर देता है, तो रत्नों के प्रकाश की भव्यता में प्रभु कैसे देदीप्यमान दिखते होंगे। यहाँ एक घंट की आवाज़ घंटों तक कान में गूंजती है तो वहाँ के सैंकड़ों मण माणिक-मोती से जड़ित और परस्पर टकराते झूमरों की झनकार कैसी होगी ? प्रभु ! कभी तो मैंने भी आपके इस स्वरूप को निहारा होगा, परन्तु संसार में भटकते हुए मैं सब भूल गया हूँ ।
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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