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सकलतीर्थ वंदना
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A. स्थावर तीर्थ की वंदना :
सकल तीर्थ वंदु कर जोड़, जिनवर नामें मंगल कोड। शब्दार्थ :
मैं सकल तीर्थों को हाथ जोड़कर वंदन करता हूँ (क्योंकि) श्री . जिनेश्वर प्रभु के नाम के प्रभाव से करोड़ों मंगल प्रवर्तते हैं। विशेषार्थ :
तारे उसे तीर्थ कहते हैं। संसार सागर से तारने का सामर्थ्य मुख्यतया संसार से पार उतरे परमात्मा में होता है। उनकी स्मृति करवानेवाले उनके नाम, उनकी मूर्ति आदि को भी तीर्थ कहते हैं। शास्त्रीय भाषा में कहें तो ये परमात्मा के स्थापना निक्षेप' हैं।
इस सूत्र में साधक, शुद्ध आत्मस्वरूप को प्रगट करने के अपने ध्येय को याद करने के लिए, उन सभी तीर्थों को प्रणाम करता है, जो शुद्ध आत्म स्वरूप प्रकट करनेवाले परमात्मा की याद दिलाते हैं । 1. जैन शास्त्रों में किसी भी पदार्थ को समग्र रूप में समझने के लिए नामादि चार निक्षेप वर्णित
हैं। उनमें अक्षरों की रचनारूप पदार्थ को नामनिक्षेप कहते हैं, भावात्मक वस्तु को उद्देश्य बनाकर अल्पकाल के लिए या स्थिररूप से लकड़ी, पत्थर, पुस्तक, चित्र वगैरह में अथवा अक्ष वगैरह में उसके आकार के साथ या आकार के बिना जो स्थापना की जाती है अथवा तो अनादिकाल से जो ऐसी स्थापना होती है, उसे स्थापना निक्षेप कहते हैं। भावात्मक वस्तु के पूर्व की या बाद की अवस्था, द्रव्यनिक्षेप है। ये द्रव्यनिक्षेप सचेतन या अचेतन शरीर स्वरूप भी होते हैं। कभी कभी वस्तु की भावरहित अवस्था को भी द्रव्यनिक्षेप कहते हैं। उदाहरण के रूप में प्रभु वीर का विचार करें तो शब्द से उल्लिखित 'महावीर' ऐसा नाम, वह उनका 'नामनिक्षेप' है। उनकी प्रतिमा या चित्र आदि उनका 'स्थापनानिक्षेप' है। भाव तीर्थंकर के पूर्व और बाद की जो अवस्था होती है, वह उनका 'द्रव्यनिक्षेप' है और केवलज्ञान प्राप्त कर, तीर्थ की स्थापना कर प्रभु जब तक तीर्थंकर रूप में विचरण कर रहे थे, तब की उनकी अवस्था वीरप्रभु का 'भावनिक्षेप' है। भावनिक्षेप जैसे शुद्ध आत्मतत्त्व को प्रगट करने में प्रबल निमित्त बनता है, वैसे भगवान के शुद्ध भाव के साथ जुड़े उनके नाम, उनकी प्रतिमा आदि या उनका द्रव्य भी शुद्ध आत्मतत्त्व को प्रगट करने में निमित्तभूत बनते हैं। जब तक शुद्ध आत्मद्रव्य प्रगट न हो, तब तक वे शुभभाव का कारण बनते हैं।