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________________ २५८ सूत्र संवेदना-५ २४ (७७) रेवइ - रेवती श्राविका प्रभु वीर की परम श्राविका, रेवती ने प्रभु की भावपूर्वक भक्ति कर, तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया। उस प्रसंग की स्मृति हृदय को द्रवित कर देती है। बात है श्रावस्ती नगरी की। वहाँ गोशालक ने प्रभु के ऊपर तेजोलेश्या का प्रयोग किया था । जिसके कारण प्रभु छ: महीने तक खून की उल्टी अर्थात् अतिसार से पीड़ित रहे। एक वैद्य से पता चला की बीजोरापाक से प्रभु की द्रव्य व्याधि टल सकती है। वीतराग प्रभु को तो व्याधि से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। परन्तु प्रभु की इस व्याधि से चतुर्विध संघ व्यथा का अनुभव कर रहा था। उसमें प्रभु के शिष्य सिंह अणगार ने अश्रुभरी आँखों से प्रभु से औषधि सेवन करने की विनती की। प्रभु ने स्वीकृति दी। सिंह अणगार रेवती के यहाँ गए और कहा, 'आपने अपने लिए जो औषधि तैयार की है वह परमात्मा के आरोग्य के लिए लाभप्रद है।' रेवती तो हर्ष विभोर हो गई। 'मैं कितनी भाग्यशाली कि खुद परमात्मा के रोग निवारण के लिए मेरी औषधि काम आएगी ।' इस विचार से उन्होंने भावपूर्वक बीजोरापाक दिया । "प्रभु ने मुझे भावरोग से बचने की औषधि दी है, उसका ऋण तो मैं कभी भी नहीं चुका पाऊँगी, फिर भी मेरा यह द्रव्य औषध प्रभु के द्रव्य रोग को दूर करने में निमित्त बने तो मैं धन्य बन जाऊँ।" ऐसी शुभ भावना से भावित होकर रेवती ने प्रभु भक्ति से तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया । वे अनागत चौबीसी में 'समाधि' नाम के सत्रहवें तीर्थंकर होंगी। “धन्य है सती रेवती को! धन्य है सिंह अणगार को! धन्य है उनकी निःस्वार्थ और निर्दोष भक्ति को।
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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