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सूत्र संवेदना-५ १७. (७०) सुजिट्ठ - सुज्येष्ठा सती
सुज्येष्ठाजी भी चेड़ा राजा की पुत्री थी। जैनधर्म में उनको दृढ़ श्रद्धा थी। एक बार उन्होंने अपने ज्ञान से एक तपस्वी को वाद में हराया था। उस तपस्वी ने वैर के कारण श्रेणिक राजा को उनका चित्र दिखाकर, उन पर मोहित बनाया। चेड़ा राजा द्वारा उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया जाने पर श्रेणिक महाराज उन्हें सुरंग के रास्ते से ले जाने आए। सुज्येष्ठा की प्राणप्यारी बहन चेल्लणा भी उनके साथ जाने को तैयार हो गई। दोनों रथ में बैठीं, परन्तु सुज्येष्ठा आभूषणों का डिब्बा लेने वापस गई, तब तक कोलाहल मच गया। सैनिक पीछे भागे, युद्ध हुआ, कर्मकृत संयोग-वियोग के खेल में सुज्येष्ठाजी वहीं रह गई और चेल्लणा को लेकर श्रेणिक महाराज चले गए। यह सूचना प्राप्त होते ही सुज्येष्ठाजी का राग विराग में बदल गया और उन्होंने संयम जीवन का स्वीकार किया ।
सुकोमल शरीरवाली सुज्येष्ठाजी शरीर की ममता तोड़ने के लिए संयम स्वीकार कर विविध परिषहों को सहने लगीं । एक बार वे छत के ऊपर आतापना लेने खड़ी हुई थीं। वहीं एक विद्याधर उनके ऊपर मोहित हो गया। उसने भ्रमर का रूप धारण किया और साध्वी सुज्येष्ठा की योनि में अपना वीर्य स्थापित किया । साध्वी गर्भवती हुई, लोग निन्दा करने लगे, तब ज्ञानी गुरु भगवंत ने सत्य हकीकत बताई, उनको निर्दोष ठहराया। कालक्रमानुसार उन्होंने सत्यकी नाम के पुत्र को जन्म दिया। उपाश्रय में बड़े होते-होते वह ग्यारह अंग का ज्ञाता हुआ। श्रीमती सुज्येष्ठा सुंदर संयम का पालन करते हुए तीव्र तपश्चर्या द्वारा कर्म क्षय करके मोक्ष गईं।
"हे सुज्येष्ठाजी ! आपको हृदयपूर्वक वंदना करते हुए