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सूत्र संवेदना-५ पैर जितनी धरती माँगी। माँग का स्वीकार होते ही प्रशस्त क्रोध को उदय में लाकर, वैक्रिय लब्धि से विष्णुमुनि ने एक लाख योजन का विराट शरीर बनाया, एक पैर समुद्र के पूर्वी किनारे पर रखा और दूसरा पैर समुद्र के पश्चिमी किनारे पर रखा। “तीसरा पैर कहाँ रखू?" ऐसा कहकर, उन्होंने तीसरा पैर नमुचि के मस्तक पर रख दिया । उस वक्त नमुचि साधु-द्वेष के कारण मरकर नरक में गया। इस प्रकार विष्णुकुमार ने प्रयत्नपूर्वक क्रोध करके संघ को उपद्रव से मुक्त किया। उसके बाद देव, गंधर्व, किन्नर वगैरह की उपशम भरी तथा मधुर संगीतमय प्रार्थना से उनका प्रशस्त क्रोध शांत हुआ। शुद्ध चारित्र का पालन करके अंत में वे मोक्ष में गए।
"हे उपशम भाव में मग्न ऋषिराय ! आपके लिए अंतर्मुख दशा सहज थी, जब कि हमारे लिए बहिर्मुखता सहज है। प्रातः काल हम प्रार्थना करते हैं कि हमारी बहिर्मुखता दूर कर, हमें भी उपशम भाव में मग्न बनाएँ ।” ४८. अद्दकुमारो - श्री आर्द्रकुमार संबंध जिन्हें बंधन लगते हैं, वे किसी भी मज़बूत संबंध को तोड़ सकते हैं; यह बात आर्द्रकुमार के जीवन से स्पष्ट समझी जा सकती है। वे जन्मांतर में सर्वविरति के आराधक थे; संयम की कुछ विराधना के कारण उनका जन्म आर्द्र नाम के अनार्य देश में हुआ था।
उनके पिता आर्द्रक राजा की श्रेणिक राजा के साथ मित्रता थी। अपना पुत्र और अभयकुमार यदि मित्र बन जाएँ तो राजकीय संबंध अच्छे बने रहेंगे ऐसी इच्छा से उन्होंने बहुत रत्न आदि सहित अभयकुमार के प्रति मैत्री का प्रस्ताव भेजा। बुद्धिमान अभयकुमार ने प्रतिभेंट के रूप में आर्द्रकुमार को जिनेश्वर परमात्मा की प्रतिमा भेजी।