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सूत्र संवेदना-५ दीक्षा ले लेना। चतुराईपूर्वक शब्दछल से पिता के वचन के बंधन से छूटकर, उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। उग्र ज्ञान-ध्यान-तप का स्वीकार कर, अंत में एक महीने का अनशन स्वीकार कर, अनुत्तर विमान में देव हुए। वहाँ से च्युत होकर वे महाविदेह क्षेत्र से सिद्धगति को प्राप्त करेंगे।
“आज प्रातःकाल अभयकुमार का स्मरण करके, भावपूर्ण हृदय से उनको वंदन करके हमें उनके जैसी निर्मल बुद्धि प्राप्त हो, ऐसी प्रार्थना करनी है।" ४. अ ढंढणकुमारो - और श्री ढंढणकुमारजी कर्मनाश के अडिग निश्चय के साथ अदीन और अप्रमत्त मनोवृत्ति धारण करनेवाले ढंढणमुनि, कृष्ण वासुदेव और ढंढणारानी के पुत्र थे। नेमनाथ प्रभु से दीक्षा लेकर जब वे भिक्षा लेने निकले तब पूर्वभव में लोभ के वशीभूत होकर नौकर और पशुओं को भोजन तथा चारापानी में अंतराय डालकर जो कर्म बंधा था, वह उदय में आया । इस कर्म के कारण कृष्ण महाराज के पुत्र को उनकी ही नगरी में निर्दोष भिक्षा प्राप्त नहीं हुई । __ प्रभु के मुख से अपने दुष्कृत्य से बंधे कर्मों को जानकर खिन्न हुए बिना, कर्मों को तोड़ने के संकल्प से उन्होंने अभिग्रह लिया कि 'मुझे अपनी लब्धि से जब आहार प्राप्त होगा, तब ही मैं पारणा करूँगा ।'
मुनि का अभिग्रह अडिग था, तो कर्म का ज़ोर भी ज़बरदस्त था। छ: महीने तक वे महामुनि उसी नगरी में भिक्षा लेने जाते थे, परन्तु निर्दोष भिक्षा न मिलने पर किसी भी प्रकार के खेद या थकान के बिना प्रसन्नतापूर्वक वापस आकर प्रभु के पास उपवास का पच्चक्खाण करते और प्रसन्नता से ज्ञान-ध्यान में लीन हो जाते।