SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ सूत्र संवेदना-५ विशेषार्थ : १. भरहेसर - श्री भरतेश्वर चक्रवर्ती : चक्रवर्ती संबंधी श्रेष्ठ भोगों को भुगतने के बावजूद सतत आत्महित के प्रति अत्यंत जागृत रहनेवाले ऋषभदेव भगवान के ज्येष्ठ पुत्र ‘भरत महाराजा' के वैराग्य का स्मरण करते हुए हमारा मस्तक झुक जाता है। अष्टापदगिरि के ऊपर जिनमंदिर का निर्माण, वेदों की रचना, साधर्मिक भक्ति वगैरह अनेक शासन प्रभावक कार्यों से उनका जीवन सुशोभित था। रागादि दोषों से मुक्त होने की और वैराग्यादि गुणों को प्रगट करने की उनकी लालसा कैसी होगी कि जब अनेक मुकुटबद्ध राजा उनके सामने नतमस्तक होकर खड़े रहते थे, तब भी उनके साधर्मिक कल्याण मित्र उनको निःसंकोच कह सकते थे, 'जितो भवान् ! वर्धते भीः' - 'हे राजन ! आप इन्द्रियों से पराजित हैं। आपके सिर पर भय बढ़ रहा है।' संसार में पूरी तरह फँसे होने के बावजूद उससे छूटने के लिए तत्पर रहनेवाले भरत राजा को यह हितशिक्षा सुनकर अपने ऊपर धिक्कार होता था एवं 'मैं अधमाधम हूँ' ऐसा प्रतीत होता था। दोषों की गवेषणा (खोज) के साथ उनका विवेक भी विशिष्ट था। चक्र की उत्पत्ति और प्रभु के केवलज्ञान की बधाई एक साथ मिलने पर उन्होंने प्रथम केवलज्ञान का महोत्सव मनाया। ९९ भाइयों की दीक्षा के बाद विशेष प्रकार से वैराग्य भावना से भावित चक्रवर्ती को एक बार अरिसा भवन में अंगूठी के बिना अंगुली निस्तेज लगी। शरीर के सर्व अलंकार उतारने पर तो शरीर भी शोभा रहित लगा, तब शरीर की शोभा अनित्य और पराधीन जानकर, चिंतन करने पर उन्हें संसार के सभी भाव अनित्य
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy