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सूत्र संवेदना-५
भगवंतों का कल्याण करती हैं, वैसे ही भव्य जीवों का भी वे कल्याण करती हैं, इसलिए यहाँ 'स्वस्तिप्रदा' रूप में देवी को संबोधन कर उन्हें नमस्कार किया गया है। यह गाथा बोलते समय साधक को प्रार्थना करनी चाहिए कि,
"हे देवी ! आप भव्य प्राणियों के कार्य को सिद्ध करके उनको शांति आदि देती हैं; परन्तु मेरी तो ऐसी योग्यता नहीं है या ऐसा पुण्य भी नहीं है कि आप प्रत्यक्ष होकर मेरा कार्य करें। तो भी नतमस्तक होकर आपसे प्रार्थना करता हूँ कि, आप परोक्ष रूप से भी मेरे कार्य को सिद्ध करें ! मुझे शांति दें ! मुझे
मोक्षमार्ग में सहाय करें !" अवतरणिका :
भव्य प्राणियों के प्रति देवी की भावना बताकर, अब भक्तों और सम्यग्दृष्टि जीवों के लिए विजयादेवी का सामर्थ्य बताया गया है : गाथा : भक्तानां जन्तूनां शुभावहे ! नित्यमुद्यते ! देवि ! । सम्यग्दृष्टीनां धृति-रति-मति-बुद्धि-प्रदानाय ।।१०।। अन्वय : भक्तानां जन्तूनां शुभावहे ! सम्यग्दृष्टीनां धृति-रति-मतिबुद्धि-प्रदानाय नित्यम् उद्यते देवि ! (तुभ्यं नम अस्तु) ।।१०।। गाथार्थ :
भक्त प्राणियों का शुभ करनेवाली, सम्यग्दृष्टि जीवों को धृति, रति, मति और बुद्धि देने में सदा तत्पर रहनेवाली हे देवी ! (आपको नमस्कार हो !)