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________________ सूत्र संवेदना - ५ I जो साधक विजयादेवी का स्मरण करते हैं उन के सामने यह देवी साक्षात् प्रकट होती है । इसीलिए यहाँ देवी के लिए 'भवति' अर्थात् 'साक्षात् प्रकट होनेवाली' ऐसे संबोधन का प्रयोग किया गया है । अवतरणिका : ९८ विविध विशेषणों द्वारा विजयादेवी के प्रति आदर व्यक्त करके, अब प.पू. मानदेवसूरीश्वरजी महाराज जगत्-मंगल- कवच की रचना करते हुए देवी को संघादि का हित करने के लिए प्रेरणा देते है या फिर वे संघादि के रक्षण के कार्य में उत्साहित होकर प्रवृत्ति करें, इस प्रकार उन्हें संबोधित किया हैं । गाथा : सर्वस्यापि च सङ्घस्य भद्र - कल्याण - मङ्गल- प्रददे ! साधूनां च सदा शिव - सुतुष्टि - पुष्टि - प्रदे जीयाः ।।८।। अन्वय : सर्वस्य अपि च सङ्घस्य भद्र-कल्याण-मङ्गल- प्रददे ! साधूनां च सदा शिव-सुतुष्टि - पुष्टि - प्रदे (त्त्वं) जीयाः ।।८।। गाथार्थ : सकल संघ को प्रकर्ष से भद्र, कल्याण और मंगल देनेवाली और साधुओं को सदा प्रकर्ष से शिव (निरुपद्रवता, सुतुष्टि, उचित संतोष ) और पुष्टि (धर्मकार्य की या गुणों की वृद्धि) देनेवाली हे देवी! आप जय को प्राप्त करें ।
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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