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________________ सूत्र संवेदना-५ अन्वय: भगवति ! विजये ! सुजये ! परापरैरजिते ! । अपराजिते ! जगत्यां जयतीति जयावहे ! भवति ! ते नमो भवतु ।।७।। गाथार्थ : हे भगवति ! हे विजया ! हे सुजया ! पर या अपर देवों के द्वारा अजित हे अजिता ! हे अपराजिता ! (आप) संसार में जय को प्राप्त करती हैं, इसलिए हे जयावहा ! हे हाजराहजूर देवी ! आपको नमस्कार हो । अथवा हे भगवति ! हे विजया ! हे सुजया ! हे अजिता ! हे अपराजिता ! आप संसार में पर और अपर मंत्रों के द्वारा जय प्राप्त करती हैं। इस कारण ही हे जयावहा ! हे साक्षात् होनेवाली देवी ! आपको नमस्कार हो। विशेषार्थ : अब बाद की गाथाएँ बोलते हुए मानसपटल पर एक चित्र उपस्थित होना चाहिए । उसमें प्रभु वीर की १९ वीं पाट पर बिराजमान परम शासन प्रभावक परम पूज्य मानदेवसूरीश्वरजी म.सा. दृश्यमान होने चाहिए और साथ ही उनकी सेवा में सदैव हाज़िर रहनेवाली उनकी परम भक्त चार देवियाँ भी बुद्धि में प्रत्यक्ष होनी चाहिए । यह दृश्य उपस्थित होते ही हमें होना चाहिए कि अत्यंत निःस्पृही और आत्मकल्याण में ओतप्रोत रहनेवाले ऐसे आचार्य भगवंत को संघ के प्रत्येक अंग की आराधना निर्विघ्न होने की कितनी चिंता है ! जब शासन या संघ किसी आपत्ति में आ जाए, उसकी आराधना में खलल पहुँचे, तब संघहितचिंतक आचार्य भगवंत दैविक शक्ति का उपयोग
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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