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वि.सं. २०५७ की साल में सु. सरलाबहेन के आग्रह से यह लेखन कार्य शुरु किया था। आज देव-गुरु की कृपा से सूत्र संवेदना का वाचक वर्ग काफी विस्तृत हुआ है। गुर्जर भाषा में सात भाग और छ: आवृत्तियां प्रकाशित हो चुकी हैं। ___ इस हिन्दी आवृत्ति की नींव है - सुविनित ज्ञानानंदी सरलभाषी स्व.सा. श्री विनीतप्रज्ञाश्रीजी जो खरतरगच्छीया विदुषी सा.श्री हेमप्रभाश्रीजी म.की शिष्या हैं।
उन्होंने वि.सं. २०६३ की साल में शंखेश्वर महातीर्थ में मुझे आत्मीयता से निवेदन किया था कि, सूत्र संवेदना साधना का एक आवश्यक अंग है। अतः वह सिर्फ गुजराती भाषा के वाचक वर्ग तक सीमित न रहकर हिन्दी भाषी जिज्ञासु साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के लिए भी उपयोग में आए, इसलिए उसका हिन्दी भावानुवाद करना आवश्यक है। मैंने उन्हें बताया कि मुझे हिन्दी का अनुभव नहीं है, तो उन्होंने तुरंत विनती की कि, मुझे इस पुस्तक का भावानुवाद करने का लाभ दीजिए। इससे अनेक साधकों के लिए साधना मार्ग सरल बनेगा, यह सोचकर मैंने उनकी विनती को सहर्ष स्वीकार किया। __ थोड़े ही समय बाद एक दुर्भाग्यपूर्ण दिन उनके गुरुवर्या सा. श्री हेमप्रभाश्रीजी के साथ उनका भी विहार दौरान मार्ग-दुर्घटना में यकायक कालधर्म हो गया। पर मानो कि उनकी परोक्ष मदद न हो वैसे डॉ. श्री ज्ञानचंद जैन ने अनुवाद का कार्य हाथ पर लिया।
आज डॉ. श्री ज्ञानचंद जैन, डॉ. श्री दीनानाथ शर्मा एवं अनेक जिज्ञासु साध्वीजी भगवंतों के योगदान से सूत्र संवेदना भाग १ से ६ हिन्दी में भी प्रकाशित हो रहे हैं।
वाचक वर्ग इन संवेदनाओं के अनुभव द्वारा अपनी धर्मक्रिया को भावक्रिया बनाने में सफल हो ऐसी शुभाभिलाषा व्यक्त करती हूँ ।
लि. सा. प्रशमिताश्री
जेठ सुद-११ वि.सं. २०७१
कोलकाता