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ज्ञानाचार गाथा-४
आत्महित में सहायक बने ऐसे कषायों को प्रशस्त कषाय कहते हैं और आत्महित में बाधक बने ऐसे कषायों को अप्रशस्त कषाय कहते हैं। इस गाथा में ऐसे अप्रशस्त कषाय द्वारा जो कर्म-बंध हुआ हो उसकी ही निन्दा की गई है, पर प्रशस्त कषाय की नहीं, क्योंकि हिंसक शस्त्र का सही उपयोग आता हो तो वह सुरक्षा का कारण बन सकता है, उपयोग करना आता हो तो विष भी औषध रूप बन सकता है एवं योग्य तरीके से वश करने में आए तो हिंसक साँप भी आजीविका का साधन बन सकता है, वैसे ही विवेकपूर्ण उपयोग किए हुए ये कषाय कर्मबंध के नहीं पर कर्मनाश के कारण बनकर आत्महित में सहायक भी बन सकते हैं।
इसीलिए साधक, जब तक सम्पूर्ण कषाय बिना जीने की शक्ति प्राप्त नहीं कर सकता तब तक अपने कषायों के प्रवाह को बदलकर, उनको अप्रशस्त से प्रशस्त बनाने का प्रयत्न करता है; क्योंकि वह जानता है कि कषायों को समूल नाश करने का यही उपाय है। एक बार अप्रशस्त कषाय प्रशस्त बन गए तो प्रशस्त कषाय को निकालना सरल है। वे पालतू प्राणी की तरह बुलाने पर आते हैं और काम पूर्ण होते ही वापस चले जाते हैं। हाँ, उनका उपयोग तीक्ष्ण हथियार की तरह सावधानी से करना चाहिए।
लेज़र सर्जरी करने वाला डॉक्टर, जैसे स्पर्श मात्र से जला देने वाली तीक्ष्ण लेज़र किरणों द्वारा भी अत्यंत विवेक एवं सावधानी पूर्वक, जहाँ जितने किरणों की ज़रूरत हो वहाँ उतने प्रमाण में ही उनका उपयोग करके, रोगयुक्त भाग को दूर करके रोगी को रोग मुक्त कर सकता है, उसी प्रकार साधक भी संसार में डुबाने वाले तीक्ष्ण कषायों द्वारा भी विवेक एवं सावधानीपूर्वक, जहाँ जितने कषायों की ज़रूरत हो वहाँ उतने प्रमाण में उनका उपयोग करके संसार सागर से पार हो सकता
कपाय | प्रशस्त
अप्रशस्त लोभ । आत्मिक गुणों के विकास के लिए ज्ञान, ममता के बंधन को दृढ़ करें ऐसे धन
दर्शन, चारित्रादि गुणों को विकसित | धान्यादि परिग्रह के लिए या प्रमाद के करने का लोभ, धार्मिक कार्य करने का | पोषण के लिए की गई इच्छाएँ अप्रशस्त लोभ, यथाशक्ति तप-त्याग करने का | लोभ कहलाती हैं। लोभ प्रशस्त लोभ है।