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ज्ञानाचार
वंदित्तु सूत्र
किसी के अपराध को न सहन करने का परिणाम क्रोध है। जाति आदि से मैं कुछ विशेष हूँ ऐसा भाव मान है। न हो ऐसा दिखाने की प्रदर्शनमयी वृत्तिरूप कपटभाव माया है और ज्यादा से ज्यादा पाने की या संग्रह करने की तृष्णा लोभ है।
क्रोध, मान, माया, लोभ : ये चार कषाय जीव के परम शत्रु हैं। संसार के सर्व संक्लेश एवं दुःखों का एक मात्र कारण हैं। इनकी उपस्थिति में जीव कभी भी वास्तविक सुख नहीं पा सकता। यद्यपि ये कषाय दुःख के कारण हैं, तो भी उनका सदुपयोग करने में आए तो वे भी आत्महित में सहायक बन सकते हैं। इसलिए ही शास्त्रकारों ने आत्महित साधने की उनकी क्षमता के मुताबिक उनके दो प्रकार बताये हैं - १. प्रशस्त कषाय २. अप्रशस्त कषाय।
2. ऊपर बताई हुई क्रोधादि चार कषायों की व्याख्या, उनके भेद-प्रभेद वगैरह की पूर्ण जानकारी सूत्र
संवेदना भा.१ सूत्र-२ में से प्राप्त हो सकती है।
शशास्त
क्रोध
मान
३ कषाय प्रशस्त
अप्रशस्त शिष्य या पुत्रादि को सुधारने के लिए, अपनी मरजी मुजब न हो या अपनी ईष्ट देव-गुरु व धर्म की हानि करने वाले को वस्तु या व्यक्ति को कोई नुकसान शिक्षा देने के लिए या अपने कर्म, पहुँचाता हो या कुछ अनिच्छनीय प्रसंगों कुसंस्कार या दोषों के प्रति विवेक पूर्वक के कारण जो गुस्सा आता है वह किया गया क्रोध प्रशस्त क्रोध है। | अप्रशस्त क्रोध है। उत्तम देव-गुरु-धर्म या कुल आदि मिलने देव-गुरु की कृपा से, पुण्य योग से मिले पर मान अर्थात् ऐसी उत्तम चीज मिलने रूप, ऐश्वर्य, कुल जाति आदि का के बाद अब मैं हरगिज हीन प्रवृत्ति नहीं| अभिमान अथवा ज्ञान का, बल का कर सकता ऐसा विवेक, स्वीकृत व्रतादि| या कुशलता का अभिमान करना में स्वाभिमानपूर्वक निश्चल-अडिग रहना| अप्रशस्त मान है। प्रशस्त मान है। धर्म की प्राप्ति के लिए, स्व-पर आत्मा के भौतिक स्वार्थ को साधने के लिए कोई हित के लिए या प्रवचन की निन्दा को भी कार्य में माया, वक्रता, दूसरों को | रोकने के लिए विवेकपूर्वक की हई माया ठगने की वृत्ति तथा मात्र भाव बिना
अथवा अपने मन एवं इन्द्रियों को विकारी लोक में प्रिय बनने के लिए देव-गुरु की | बनने से ठगना भी प्रशस्त माया है। भक्ति अप्रशस्त माया है।
माया