________________
धर्माराधना से उपसंहार
अवतरणिका :
चित्तशुद्धि के बिना धर्म साधना संभव नहीं। इसलिए श्रावक सर्वप्रथम चित्त को मलिन करने वाले अतिचारों की आलोचना करता है। आलोचना द्वारा शुद्ध होकर श्रावक जब धर्माराधना के लिए अत्यन्त प्रयत्नशील बनता है तब गोदोहिका आसन का त्याग कर, खड़ा होता हुआ, यह गाथा बोलता है -
गाथा:
तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अब्भुडिओ मि आराहणाए, विरओ मि विराहणाए। तिविहेण पडिक्कतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं ।।४३ ।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : तस्य केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य आराधनायै अभ्युत्थितः अस्मि, विराधनाया: विरत: अस्मि। त्रिविधेन प्रतिक्रान्त:, चतुर्विंशतिं जिनान् वन्दे ।।४३ ।। गाथार्थ :
केवली भगवंत प्ररूपित श्रावक धर्म की आराधना करने के लिए मैं खड़ा हुआ हूँ। उनकी विराधनाओं से मैं विरमित हुआ हूँ एवं तीन प्रकार से होनेवाली पाप प्रवृत्तियों का प्रतिक्रमण करता हुआ मैं (मंगल हेतु) चौबीस जिनों को वंदन करता हूँ।