________________
वंदित्तु सूत्र
और चार
मूलगुण अर्थात् पाँच अणुव्रत और उत्तरगुण अर्थात तीन गुणव्रत शिक्षा व्रत, इन बारह व्रत विषयक सामान्य से १२४ अतिचारों की आलोचना पूर्व की गाथाओं द्वारा की है, तो भी प्रत्येक व्रत विषयक असंख्य अतिचार होते हैं। शास्त्र में कहा है कि प्रायश्चित्त के स्थान 'असंख्य" हैं। मन की चंचलता और प्रमाद की बहुलता के कारण इनमें से बहुत दोषों का सेवन हुआ हो पर वे सब दोष प्रतिक्रमण के समय याद न भी आएँ ऐसा हो सकता है। इसीलिए कहते है
-
२७०
न य संभरिआ पडिक्कमण-काले, तं निंदे तं च गरिहामि - प्रतिक्रमण करते समय (जो अतिचार) याद न आए हों, उनकी मैं निन्दा एवं गर्हा करता हूँ ।
प्रतिक्रमण के समय सूत्र के एक एक पद के माध्यम से अतिचारों को याद करने का खूब प्रयत्न किया हो तो भी धारणा एवं स्मृति की निर्बलता के कारण मन, वचन, काया से हुई सर्व स्थूल या सूक्ष्म प्रवृत्तियाँ, स्मरण में न आई हों और उसके कारण कई अतिचारों की आलोचना करनी रह गई हो तो उन सर्व पापों से शुद्ध होने की इच्छा वाला श्रावक कहता है, 'भगवंत ! जो अतिचार मुझे याद नहीं हैं, उन सब अतिचारों की भी मैं निन्दा करता हूँ, गुरु समक्ष उनकी गर्हा करता हूँ ।'
इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि -
'मेरा मन एवं मेरी इन्द्रियाँ बहुत चंचल हैं, इस कारण से पल पल में मन के भाव परिवर्तित हो जाते हैं जिससे व्रत में छोटे-बड़े अनेक दोष लगते रहते हैं परंतु उन सब दोषों का हिसाब रखना मेरे लिए संभव नहीं है । इसके अलावा बहुत से दोषों को तो मैं दोष की तरह समझ भी नहीं पाया। तो भी हे प्रभु! मुझे ऐसे दोषों से मुक्त तो होना ही है । रूक्मि की तरह छोटे दोषों को छुपाकर, मुझे मेरे भव की परंपरा की वृद्धि नहीं करनी है। इसीलिए जाने-अनजाने, छोटे-बड़े जो कोई दोष लगे हों, उनकी मैं आत्मसाक्षी से निन्दा करता हूँ एवं भगवंत ! आपके पास उनकी गर्हा करता हूँ एवं मेरे मन और इन्द्रियों को नियंत्रण में रखने का प्रयास करता हूँ।
2. पायच्छित्तस्स ठाणाई संखाईआई गोअम्मा ।
लोइअं तु इक्कं वि, ससल्लं मरणं मरई ।।
- प्रबोधटीका
ta ! प्रायश्चित्त के स्थान असंख्य हैं और उनमें से एक की भी आलोचना लेनी बाकी रह गई हो तो जीव की शल्य सहित मृत्यु होती है।