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संलेखना व्रत गाथा - ३३
• जो होता है वो शरीर को होता है, मुझे (आत्मा को) कुछ नहीं होता, एवं जिस शरीर को मैं संभालता हूँ उसे तो यहाँ ही छोड़ जाना है, को दृढ़ करना ।
इस विश्वास
• अरिहंतादि चार उत्तम शरण स्वीकार करना चाहिए ।
• जीवन में अनेक पाप किए हैं, उसके द्वारा पड़े हुए कुसंस्कारों को निर्मूल करने के लिए किए हुए दुष्कृत्यों की आत्मसाक्षी से निंदा एवं गुरु समक्ष गर्दा करनी चाहिए ।
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• शुभ संस्कारों को दृढ़ करने के लिए सतत सर्व जीवों के सुकृतों की अनुमोदना करनी चाहिए ।