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वंदित्तु सूत्र
प्रकट करता है और चित्त में से हिंसा, झूठ, छल, कपट, निन्दा, राग-द्वेष आदि रोगों की संभावना को घटाता है। यह एक वास्तविकता है फिर भी रोज प्रतिक्रमण करने वाले वर्ग में भी ऐसा दिखाई नहीं देता; इसका कारण यह है कि आज बाह्य से प्रतिक्रमण करने वाला वर्ग बड़ा है, परंतु प्रतिक्रमण के परमार्थ को समझकर भावपूर्वक प्रतिक्रमण करने वाला वर्ग अति अल्प है।
दोषों को दूर करके, गुणों को प्राप्त करने के लिए जिसे भावपूर्वक प्रतिक्रमण करना हो उसे यह क्रिया किस मुद्रा में बैठकर करनी चाहिए, उसमें प्रयोग होने वाले सूत्रों का उच्चारण किस तरह से करना चाहिए, सूत्र के भावों का स्पर्शन करना एवं उन भावों द्वारा दोषों का नाश करके गुणों को किस तरह से प्रकट करना, यह खास समझना चाहिए। अगर इन सब बातों को समझकर प्रतिक्रमण की क्रिया की जाए तो यह क्रिया भावपूर्ण बन सकती है और भावपूर्वक की हुई क्रिया सब पाप कर्मों एवं पाप की वृत्तियों का नाश करके, आत्मा को शुद्ध बना सकती है।
मानव शरीर में जितना महत्त्व हृदय का है, उतना ही महत्त्व क्रिया में भाव का है। भाव हीन क्रिया निष्प्राण शरीर जैसी बन जाती है। इसीलिए प्रतिक्रमण की क्रिया को भावपूर्ण बनाने के लिए सर्वप्रथम प्रतिक्रमण क्या है ? उसके अधिकारी कौन हैं ? आदि विषयों के बारे में सोचेंगे। प्रतिक्रमण किसको कहते हैं ? __ 'प्रति' अर्थात् पीछे एवं 'क्रमण' अर्थात् लौटना। पीछे लौटने की क्रिया को प्रतिक्रमण कहते हैं । वापस लौटने की क्रिया अनेक प्रकार की होती हैं, परंतु यहाँ प्रमादादि दोषों के कारण हिंसा, असत्य, चोरी आदि पाप स्थानों की ओर झुकी हुई आत्मा को उस मार्ग से पीछे खींचकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप अपने मूल स्थान में लाने की क्रिया को प्रतिक्रमण' कहते हैं; अथवा विषय-कषाय के अधीन बनकर अपनी व्रत-नियम की मर्यादा को चूक जाना या अपनी भूमिका को भूलकर आचरण करना अतिक्रमण है और इस अतिक्रमण से वापस लौटना 1. स्वस्थानाद् यत् परस्थानं प्रमादस्य वशाद् गतः तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते।।
-आवश्यकनियुक्ति हारिभद्रीयटीका गा. १२३०/३१ वृतौ