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भूमिका
सर्वत्र सर्वस्य सदा प्रवृत्तिः, दुःखस्य नाशाय सुखस्य हेतोः । तथापि दुःखं न विनाशमेति, सुखं न कस्यापि भजेत् स्थिरत्वम् ।।१६।।
- हृदयप्रदीप इस संसार के सभी जीव दुःख से मुक्त होकर सुख प्राप्त करना चाहते हैं और इसलिए वे प्रयत्नशील भी रहते हैं। फिर भी आश्चर्य की बात यह है कि जगत में कोई भी जीव सम्पूर्ण दुःख से मुक्त नहीं होता एवं सम्पूर्ण सुख को प्राप्त भी नहीं करता। इसका कारण एक ही है कि वे दुःख से मुक्त होने के लिए मनचाहे उपायों को अपनाया करते हैं, परंतु ज्ञानी पुरुषों द्वारा बताए हुए दुःख के मूल कारणों को ढूँढकर उनसे दूर होने का प्रयत्न नहीं करते।
शास्त्रकार कहते हैं कि, दुःख का मूल कारण है, भौतिक सुखों का राग एवं भौतिक दुःखों का द्वेष । भौतिक सुखों को प्राप्त करने के लिए संसारी जीव हिंसा, झूठ आदि स्व-पर को दुःख देनेवाले पाप कार्य करते हैं, जिससे वे अनेक कर्मों को (पापों को) बांधकर दुःखी होते हैं। इसलिए जिनको वास्तविक दुःख से मुक्त होना हो उन्हें राग-द्वेष के भावों से दूर होना चाहिए। इन रागादि भावों को घटाकर पाप कार्य से वापस लौटने के लिए जैन शास्त्रों में प्रतिक्रमण की एक सुन्दर क्रिया बताई है। भावपूर्वक की गई यह क्रिया पापकर्मो का एवं पाप कराने वाले जीव के कुसंस्कारों का नाश करके आत्मा को निर्मल बनाती है। इसी कारण प्रतिक्रमण की क्रिया एक आध्यात्मिक स्नानतुल्य बन जाती है।
आरोग्यशास्त्र की दृष्टि से योग्य पद्धति से किया हुआ स्नान शरीर के मल को दूर करता है, शरीर में ताजगी प्रकट करता है एवं रोगों की संभावनाएँ घटाता है। उसी प्रकार शास्त्रीय मर्यादानुसार भावपूर्वक किया हुआ प्रतिक्रमण आत्मा पर छाई हुई कर्मरज को दूर करता है। साथ ही साथ आत्मा में नई स्फूर्ति एवं ऊर्जा