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________________ २१० वंदित्तु सूत्र 'प्रतिलेखन' कहते हैं और प्रतिलेखन के बाद हल्के हाथ से चरवले आदि से जीवजंतुओं को दूर करने की क्रिया को प्रमार्जन' कहते हैं। संथारादि का उपयोग करने से पहले प्रतिलेखन और प्रमार्जन दोनों करने की शास्त्र विधि-मर्यादा है; परंतु प्रमाद के कारण या कषाय के उदय से प्रतिलेखन और प्रमार्जन ठीक तरह से न किया हो तो व्रत में अतिचार लगता है। गाथा में मात्र ‘संथारा' शब्द का प्रयोग किया है, परंतु उसके उपलक्षण से वस्त्र, पात्र, वसति या पुस्तक आदि का उपयोग करते हुए भी प्रतिलेखन और प्रमार्जन करना ज़रूरी है। यह समझ लेना चाहिए । वह न करे अथवा जैसे-तैसे करे तो अतिचार लगता है। उच्चारविहिपमाय - (३) 'अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चार-प्रस्रवण भूमि' बड़ी नीति और लघुनीति के विसर्जन के लिए जगह (मल-मूत्र विसर्जन करने की जगह) का प्रतिलेखन नहीं करना, अथवा जैसे-तैसे प्रतिलेखन करना। (४) 'अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित-उच्चार-प्रस्रवण-भूमि' बड़ी नीति और लघु नीति के विसर्जन की जगह का प्रमार्जन नहीं करना, अथवा जैसे-तैसे प्रमार्जन करना। 'उच्चार' शब्द का प्रयोग उच्चार-प्रस्रवण-भूमि के लिए किया गया है। उच्चार-प्रसवण-भूमि अर्थात् बड़ी नीति, लघुनीति (मल, मूत्र) आदि के विसर्जन की भूमि, जिसे स्थंडिल-भूमि भी कहते हैं। उसके प्रतिलेखन, प्रमार्जन की खास विधि में प्रमाद करना अर्थात् उसमें भूल-चूक करना वह ‘उच्चारविधि प्रमाद' नाम का दोष है। पौषधधारी श्रावक को मल और मूत्र यहाँ-वहाँ और मन चाहे तरीके से नहीं फेंकना चाहिए, परंतु जहाँ लोगों का आवागमन न हो और जीव जंतु भी न हों ऐसी जगह में ही उनका विसर्जन करना चाहिए। विसर्जन करने से पहले उस भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन करना चाहिए, क्योंकि उसके बिना विसर्जन करने से जीव हिंसा होती है। जहाँ लोगों का आना-जाना हो वैसी जगह विसर्जन करने से जैन शासन की निन्दा होती है और लोग जैन धर्म से विमुख होते हैं। इस तरह विसर्जन
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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