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ग्यारहवाँ व्रत गाथा-२९
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और सम्पूर्णता (सर्व से) दोनों प्रकार से होता है। चारों प्रकार के इस पौषध के साथ सामायिक व्रत की प्रतिज्ञा भी करते हैं । यद्यपि अव्यापार पौषध से सर्व सावद्य का त्याग आ जाता है, तो भी सामायिक की प्रतिज्ञा द्वारा उसका दृढ़ीकरण होता है और समभाव के लिए विशेष यत्न किया जाता है। इसलिए पौषध व्रत सामायिक व्रत के साथ ही करने का वर्तमान में रिवाज़ है ।
अब इस व्रत का स्वीकार करने के बाद प्रमादादि दोषों के कारण जो अतिचार लगते हैं उन्हें बताते हैं
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संथारूच्चारविहि-पमाय' - संधारने की, लघुनीति की और बड़ी नीति की विधि में हुए प्रमाद के विषय में ।
इस पद द्वारा सूत्रकार ने चार अतिचार बताए हैं। उसमें 'संथारविहिपमाय' पद से दो अतिचार बताए हैं और 'उच्चारविहिपमाय' द्वारा दूसरे दो अतिचार बताए
हैं।
संथार (विहिपमाय) -
(१) 'अप्रतिलेखित - दुष्प्रतिलेखित शय्या - संस्तारक' - शय्या और संस्तारक की प्रतिलेखना नहीं करनी अथवा जैसे-तैसे करनी ।
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(२) 'अप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित - शय्या - संस्तारक' - शय्या और संस्तारक (संथारा) की प्रर्माजना नहीं करनी अथवा जैसे तैसे करनी ।
पौषधव्रतधारी श्रावक सोने के लिए जिसका उपयोग करता है उसे संथारा कहते हैं। वर्तमान में संथारा ऊन का होता है । पूर्वकाल में दर्भ - घास एवं फलक आदि का भी संथारा होता था। इस संथारे का उपयोग करने से पहले, उसमें रहे जीवजन्तु को कोई पीड़ा न हो, इसलिए संथारे को ठीक तरह से देखने कि क्रिया को
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8 संस्तार एवं उच्चार - संस्तारोच्चार, उसकी विधि याने संस्तारोच्चारविधि, उसमें हुआ प्रमाद, वो संस्तारोच्चारविधिप्रमाद, उसके विषय में यहाँ सप्तमी का लोप हुआ है। संस्ता - विस्तार्यते भूपीठे शयालुभिरिति संस्तारः । सोने की इच्छा से जमीन पर जो बिछाया जाता है उसे संस्तार अथवा 'संस्तरन्ति साधवोऽस्मिन्निति संस्तार: ।' जिसमें साधु सोते हैं, वह 'संस्तार' |