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________________ ग्यारहवाँ व्रत गाथा-२९ २०५ विशेषार्थ : सम्यक्त्व मूलक बारह व्रतों में ग्यारहवाँ एवं शिक्षाव्रत में तीसरा पौषधोपवास व्रत है। पौषधोपवास शब्द का अर्थ दो तरीके से हो सकता है : १. व्युत्पत्ति के अनुसार एवं २. प्रचलित व्यवहार के अनुसार । उसमें शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार सोचे तो धर्म की पुष्टी करे वैसी विशिष्ट क्रिया को पौषध' कहते हैं एवं आहार का त्याग करके, आत्मा के समीप में रहने के प्रयास को उपवास कहते हैं। इन दो शब्दो को मिलाने से उपवास सहित जो पौषध किया जाए उसे पौषधोपवास व्रत कहते हैं । प्रचलित व्यवहार या प्रवृत्ति को देखें तो आहार, शरीर सत्कार, अब्रह्म और सावध व्यापार इन चारों का देश से या सर्व से त्याग करना पौषधोपवासव्रत है। श्रावक सर्व सावध व्यापार के त्यागरूप सर्व विरति को सतत चाहता है। शक्ति न होने से वह वर्तमान में उसका स्वीकार नहीं कर सकता, फिर भी उस शक्ति को प्रकट करने के लिए वह अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों के दिन अथवा जब अनुकूलता हो तब पौषधव्रत स्वीकार करता है। 1 'पोषं-पुष्टिं प्रक्रमाद् धर्मस्य धत्ते इति पौषधः ।' - धर्मसंग्रह यहाँ धर्म का अधिकार होने से धर्म की पुष्टि को जो धारण करे उसे पौषध कहते हैं। 2A उपावृत्तस्य दोषेभ्यः, सम्यग् वासो गुणैः सह। उपवासः स विज्ञेयो, न शरीरविशोषणम् ।।१।। दोषों से आवृत्त आत्मा का गुणों के साथ सम्यग् रीति से वास उपवास है, परन्तु मात्र शरीर शोषण करना उपवास नहीं। B पौषध+उप+वास = पौषधोपवास जो धर्म का संचय करने में हेतुभूत बनकर धर्म को 'पूरण करे-पूरे वह पर्व' । रूढ़ी से पर्वतिथियों को ही धर्मपुष्टि का कारण मानकर, उसे पौषध जाना जाता है। पर्वरूप पौषध दिनों में आत्मा का गुणों के साथ रहना वही 'पौषधोपवास' है। 3 'पोसहोववासे चउव्विहे पन्नत्ते तंजहा (१) आहार-पोसहे (२) सरीर-सक्कार-पोसहे (३) बंभचेर - पोसहे (४) अव्वावार-पोसहे। - आवश्यक सूत्र अध्ययन -६
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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