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आठवाँ व्रत गाथा-२६
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का प्रयत्न करना चाहिए । इसलिए, मुझे अनुकूल वातावरण से दूर रहकर प्रतिकूल वातावरण को प्रेम से स्वीकार लेना चाहिए । शरीर का राग मुझे निशदिन रोग की चिंता से व्यग्र करता है । इस शरीर के राग से मुक्त होने के लिए मुझे सदा शरीर की अस्थिरता और अशुचि का चिंतन करना चाहिए और याद रखना चाहिए कि मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं। मनोहर और इष्ट चीजें प्राप्त करने में और उनकी देखभाल करने में मुझे हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप करने पड़ते हैं । हकीकत में दुनिया में कुछ भी अच्छा नहीं है एवं कुछ भी बुरा नहीं है । सब जैसा है वैसा है । फिर भी मैं मेरी कल्पना से उनमें अच्छे-बुरे का भाव करता रहता हूँ । अगर मैं अपनी कल्पना को बदल दूं तो ऐसे निरर्थक पाप से बच सकूँगा। महापूण्य के उदय से किसी को समझा सकूँ ऐसी वाणी की क्षमता मुझे प्राप्त हुई है । इस वाणी का हो सके इतना सदुपयोग करना चाहिए, पर गलत उपदेश या सलाह देकर उसका दुरुपयोग करना ठीक नहीं । व्यवहार में या व्यापार में किसी को गलत कार्यों में जोड़ने से जिस कर्म का बंध होगा वह मुझे किस गति में ले जाएगा और कैसे दुःख का भागी बनाएगा यह मुझे हमेशा याद रखना चाहिए । हिंसक औज़ारों को मुझे अपने पास रखने ही नहीं चाहिए और यदि गृहकार्य के लिए वे रखने पड़ें तो भी किसी की नज़रो में अच्छे लगने के लिए उनको किसी को देना नहीं चाहिए, क्योंकि मुझे उनसे होनेवाली त्रस - स्थावर जीवों की हिंसा का पाप भुगतना पड़ेगा। मनोहर शब्द, रूप, रस, गंध एवं स्पर्श का अनुभव करने से मुझे वास्तव में सुख नहीं मिलता, सिर्फ मेरा भ्रम पुष्ट होता है और उनकी इच्छा से मन की अस्वस्थता बढ़ती है । उनकी प्राप्ति और उनकी देखभाल के लिए हिंसा आदि पाप करने पड़ते हैं और भविष्य में दुःख की परंपरा चलती
रहती है। • मुझमें शरीर के श्रृंगार का त्याग करने की शक्ति नहीं है, पर जो कुछ भी
शरीर की पुष्टी, शोभा आदि के लिए करूँ, उसमें जयणा का भाव रखकर कम से कम हिंसा हो ऐसा तो मैं ज़रूर ख्याल रख सकता हूँ।