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वंदित्तु सूत्र
इस व्रत को स्वीकारने के बाद अनाभोग से, सहसात्कार से या कुतूहलवृत्ति से कभी व्रत मर्यादा चूक गई हो, आवागमन की इच्छा पर कभी अंकुश न लग सका हो तो ये सब व्रत विषयक अतिचार हैं। इन सर्व दोषों को याद करके उनकी यहाँ निन्दा करनी है।
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इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि
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'आत्मभाव में रमण करने से, आत्मभाव में रहने से ही सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है; तो भी अनादि कुसंस्कारों के कारण मेरा मन आत्मभाव को छोड़कर बाहर की दुनिया में ही भटकता रहता है। अन्य-अन्य क्षेत्र में जाने की निरंतर इच्छा करता रहता है, इसलिए दुनियाभर में घूमने-फिरने की एवं देखने की इच्छा पर अंकुश लगाने के लिए मैंने इस व्रत को स्वीकारा है।
इस व्रत को स्वीकार कर अखंड पालने की मेरी अंतर की भावना होते हुए भी रागादि कषायों की अधीनता एवं कुतूहलवृत्ति आदि के कारण मेरा मन व्रत मर्यादा से बाहर जाता है एवं कभी अनाभोग से, कभी व्रतमर्यादा के विस्मरण से, वाणी एवं काया से भी व्रत को दूषित करे ऐसे दोषों का सेवन हुआ हैं। ये सब मुझ से गलत हुआ हैं। इससे कर्म बाँधकर मैंने ही मेरा भव भ्रमण बढ़ाया हैं।
हे भगवंत! इन सब दोषों की मैं गर्हा करता हूँ, आलोचना करता हूँ, निन्दा करता हूँ एवं आनंद आदि श्रावक जिन्होंने अपने इकलौते पुत्र को बचाने के लिए भी प्रतिज्ञा तोड़ने का विचार नहीं किया एवं आई हुई अनेक विपदाओं को सहर्ष स्वीकारा, उनके चरणों में नतमस्तक हो प्रार्थना करता हूँ कि आपके जैसा सुविशुद्ध व्रतपालन का सत्त्व मुझमें भी प्रकट हो, जिससे पुन: पुन: मेरा व्रत इन दोषों से मलिन न बने !'
चित्तवृत्ति का संस्करण :
'दुनिया भर में घूमने फिरने की इच्छा से जीव बहुत सारे पापबंध का भागी बन जाता है', ऐसा जानते हुए भी अनादि कुसंस्कारों के कारण श्रावक अपनी घूमनेफिरने की इच्छा को रोक नहीं पाता । इसलिए वह यह व्रत ग्रहण करके अपने मन को नियंत्रण में लाने का प्रयत्न करता है । इस प्रयत्न को सफल करने और अनादि कुसंस्कारों में परिवर्तन लाने के लिए श्रावक को नीचे बताए विषयों पर बारबार चिंतन करना चाहिए ।