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वंदित्तु सूत्र
यह व्रत भी अहिंसक भावरूप आत्मा के मूलभूत स्वभाव को पुष्ट करने के लिए हैं। अहिंसक भाव की वृद्धि का इच्छुक श्रावक सोचता है कि 'निष्प्रयोजन इधर-उधर घूमने की इच्छा - यह एक प्रकार का रोग है। अविरति के प्रभाव से अगर मैं इस व्रत को स्वीकार नहीं करूँगा तो द्रव्य या भाव हिंसा से बचना मुश्किल है । इसलिए चौदह राजलोक में गमनागमन की बढ़ती हुई इच्छा पर अंकुश लगाकर मर्यादित क्षेत्र से बाहर नहीं जाने का नियम करूँ। ऐसे नियम के कारण मेरा मन उन बाहर के क्षेत्रों से निवृत होगा, लोभ मर्यादित होगा, उन बाहर के प्रदेशों में रहते हुए जीवों को मुझ से अभय दान मिलेगा, बाह्य वृत्तियों के घटने से मैं आत्माभिमुख हो सकूँगा और मुख्यतया बाह्य दुनिया का विचरण रूकने से मेरे लिए अंतरंग दुनिया का विचरण सुलभ बनेगा।' ऐसा सोचकर श्रावक 'दसों दिशाओं में निश्चित प्रमाण से अधिक मुझे नहीं जाना' ऐसा नियम लेता हैं।
इस व्रत को ग्रहण करने के बाद जयणा के परिणाम को ज्वलंत रखने के लिए व्रतधारी श्रावक संभव हो तो वाहन का उपयोग नहीं करता। जहाँ वाहन बिना पहुँचना मुमकिन न हो वहाँ भी वह हो सके उतनी हिंसा से बचने का प्रयास करता है। इसलिए निरर्थक हिंसा से मुझे बचना है, ऐसा संकल्प एवं प्रयत्न हो तो ही इस व्रत का पालन हो सकता हैं।
यहाँ इतना खास ध्यान रखना है कि, व्रत का पालन मात्र काया से ही करना है ऐसा नहीं है परंतु नियमित क्षेत्र से बाहर जाते हुए मन तथा वाणी को भी रोकना है; क्योंकि जगत को देखने की, अलग-अलग स्थानों में घूमने-फिरने की जो तमन्ना है वही कर्मबंध का कारण है। इसलिए श्रावक इस व्रत के पालन द्वारा उस तमन्ना को भी नियंत्रित करता है। निश्चित किए हुए क्षेत्र की सीमा से आगे कभी न जाना, ऐसे नियमवाला श्रावक क्षेत्र की मर्यादा से बाहर स्वयं जाए, दूसरे को भेजे या वहाँ से कोई वस्तु मंगवाए या भेजे तो भी उसे दोष लगता हैं।
इस व्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार हैं : दिसासु उड्डे - ऊर्ध्वदिशा में प्रमाण का अतिक्रमण।
ऊपर आकाश में, पर्वत की चोटी या वृक्ष के ऊपर जाने का जो प्रमाण निश्चित किया हो, उसका उल्लंघन करने से या उसे भूल जाने से प्रथम अतिचार लगता हैं।