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________________ द्वितीय व्रत गाथा-११ १०९ भी वस्तु रखने के लिए दी ही नहीं, अथवा मैंने तुझे वापिस दे दी थी, उसके बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता, तू झूठ बोल रहा है। इसे चौथा बड़ा झूठ कहते हैं। इससे सामने वाले व्यक्ति को अत्यंत दु:ख होता है। अकल्पनीय आघात लगता है एवं बहुत बार तो ऐसे आघात से उनकी मृत्यु होने की संभावना रहती है। ५. कूटसाक्षी : किसी की गलत साक्षी देना। सम्पत्ति या सत्ता की लालच से, किसी के दबाव से या शर्म से, या रिश्वत मिलने से कोर्ट-कचहरी में या पंच के आगे किसी की झूठी साक्षी देना महा अनर्थ का मूल है। यह पाँचवाँ बड़ा झूठ है। ये पाँचों असत्य क्लिष्ट आशय से बोले जाने के कारण इन्हें स्थूल असत्य कहते हैं। द्वितीय व्रतधारी श्रावक इन पाँच झूठ का त्याग करता हैं। आयरियमप्पसत्थे इत्थ पमायप्पसंगेणं' - प्रमाद के कारण, अप्रशस्त भाव प्रवर्तते हुए इस व्रत विषयक (दिन भर में जो कोई) विपरीत आचरण किया हो (उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ)। आत्मा का अहित करे, व्रत की मर्यादा का भान भूला दे, ऐसे काषायिक भाव को अप्रशस्त भाव कहते हैं। वैसे तो व्रतधारी श्रावक ऐसे भाव अपने मन में न प्रकटे इसकी सावधानी रखता हैं, तो भी प्रमादवश असावधानी से मन में अप्रशस्त भाव पैदा हो जाते हैं और उनसे व्रत की मर्यादा भंग हो जाती है। ऐसा न हो इसलिए श्रावक को असत्य वचन के निम्नांकित कटु परिणामों का विचार करके मन को खूब तैयार करना चाहिए। असत्य से नुकसान : असत्य बोलने से भविष्य में गूंगापन, तोतलापन, जीह्वाछेद, अप्रियवादिता आदि हानि होती है। वर्तमान में झूठ बोलने वाला अन्य के अविश्वास का कारण बनता है और एक झूठ सौ झूठ बोलने के लिए मजबूर करता है। असत्यवादी निर्भय नहीं रह सकता। उसको भय बहुत सताता है। असत्य भाषा के ऐसे कटु फल को लक्ष्य में रखकर व्रतधारी श्रावक को कभी भी असत्य बोलना न पडे इसके लिए खूब सजग एवं सावधान रहना चाहिए। 5. इस पद का विशेष वर्णन गाथा नं. ९ में देखिए।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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