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द्वितीय व्रत गाथा-११
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द्वितीय व्रत की प्रतिज्ञा :
इस व्रत का स्वीकार करता हुआ श्रावक ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि 'मुझे किसी भी जीव को बचाने के अलावा, पेट में पाप रखकर, जिससे अत्यंत संक्लेश हो, किसी का जीवन जोखिम में आ जाए, किसी का विश्वास भंग हो ऐसा बडा झूठ नहीं बोलना है।'
जिज्ञासा : ‘सत्य ही बोलना' - ऐसी प्रतिज्ञा न करते हुए ‘मुझे झूठ नहीं बोलना' ऐसी प्रतिज्ञा करने के पीछे क्या कारण हैं ?
उत्तर : सत्य कभी कड़वा एवं किसी जीव का अहित करनेवाला भी हो सकता है। जैसे कि जब शिकारी पूछता है प्राणी किस ओर गया ?' तब उसके प्रश्न का यदि सही उत्तर दे तो प्राणी का जीवन खतरे में पड़ जाए। अतः ऐसे अवसर पर सत्य न बोलते हुए मौन रखना ही योग्य है। इसलिए ‘सत्य ही बोलना' ऐसी प्रतिज्ञा न करते हुए दीर्घदर्शी महापुरुषों ने 'असत्य नहीं बोलना' ऐसी प्रतिज्ञा बताई हैं। बड़ा झूठ :
‘बड़ा झूठ नहीं बोलना' ऐसी श्रावक की प्रतिज्ञा विषयक जो पाँच बड़े झूठ माने गए हैं, उनको शास्त्रों में इस प्रकार से बताया गया है : १. कन्यालीक, २. गवालिक, ३. भूम्यलिक, ४. न्यासापहार एवं ५. कूटसाक्षी।
१. कन्यालीक : कन्या संबंधी झूठ बोलना। __ अपनी या अन्य की कन्या संबंधी लेन-देन का प्रसंग आने पर श्रावक को तटस्थ रहना चाहिए। कन्या जैसी है वैसा ही उसका निरूपण करना चाहिए, जिससे बाद में किसी को पश्चात्ताप का या वैर होने का प्रसंग न आए। ऐसा होने पर भी राग के अधीन होकर कन्या के लेन-देन में, अयुक्त (नठारी), गुणहीन या कलंकित कन्या हो तो भी उसको अच्छी, गुणवान या लक्षणवंती कहना और द्वेष के अधीन होकर भली, गुणवत्ता, लक्षणवंती कन्या को खराब, गुणहीन, लक्षणहीन कहकर किसी के साथ किसी का संबंध जोड़ देना या होते हुए संबंध को रोक देना, यह बड़ा झूठ हैं। इससे कई लोगों का जीवन बिगड़ जाता है, इसलिए ऐसा झूठ