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वंदित्तु सूत्र
श्रावक त्रस जीवों को भी इन्हें मैं मारूँ ऐसे संकल्पपूर्वक हिंसा नहीं करता, तो भी अनेक प्रकार के आरंभ-समारंभ के कार्य उसे करने पड़ते हैं, जैसे कि रसोई बनाना आदि। ऐसे आरंभ-समारंभ करते हुए श्रावक से त्रस जीवों की हिंसा होने की संभावना रहती है। इस कारण से श्रावक संकल्पपूर्वक मैं त्रस जीवों को नहीं मारूंगा' ऐसा नियम कर सकता है, परंतु आरंभ-समारंभ के कारण त्रस जीवों की हिंसा से भी पूर्णतया नहीं बच सकता। इसलिए आरंभ की प्रवृत्तियों में जयणा करते हुए संकल्पपूर्वक अर्थात् इरादे पूर्वक, जान बूझकर त्रस जीवों को नहीं मारना ऐसा व्रत स्वीकारता है। इससे ५० प्रतिशत में से उसकी दया २५ प्रतिशत की हो जाती है।
'संकल्पपूर्वक त्रस जीवों को नहीं मारूँगा', ऐसा व्रत भी श्रावक सर्वथा स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि जिम्मेदारी के स्थान पर बैठे हुए श्रावक का यह फर्ज बनता है कि चोरी आदि विनाशकारी अनैतिक प्रवृत्ति करनेवाले या अन्य प्रकार के अपराधियों को सज़ा देना या उनके प्रति दंडात्मक कार्यवाही करना । इस कारण श्रावक उन अपराधी जैसे चोर, डाकू, नौकर-चाकर या अपने पुत्र-परिवार को दंडादि रूप हिंसा करने में जयणा रखते हुए निरपराधी त्रस जीवों की हिंसा का नियम करता है। इस प्रकार उसकी दया २५ प्रतिशत से १२.५ प्रतिशत की हो जाती है।
तथापि निरपराधी सब जीवों की हिंसा का त्याग भी श्रावक नहीं कर सकता क्योंकि कभी निरपराधी ऐसे पुत्र-परिवार, दास-दासी या पशु-पक्षी को भी गलत प्रवृत्ति से बचाने के लिए धमकाना पड़े या ताडन-तर्जन करना पड़े। इसलिए, इन कारणों से इतनी छूट रखकर, 'संकल्प पूर्वक, निरपराधी त्रस जीवों की निष्कारण हिंसा नहीं करूंगा।' ऐसा नियम श्रावक स्वीकारता है। इस तरह से उसकी दया १२.५ प्रतिशत में से ६.२५ प्रतिशत हो जाती है।
इस प्रकार उसका व्रत मुनि की १०० प्रतिशत की दया के सामने मात्र ६.२५ प्रतिशत या रूपये में एक आना जितना रहता है। पूर्वकाल में रूपये के बीस वसा होते थे। उसके आधार पर वर्तमान की शास्त्रीय भाषा में कहना हो तो श्रावक की