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प्रथम व्रत गाथा-९
भाव प्राणों की सुरक्षा के लिए ही द्रव्य अहिंसा का भी विशिष्ट तौर से पालन करते हैं। इसलिए वे महाव्रतों को स्वीकार करके समिति और गुप्ति का सर्वदा सेवन करते हैं।
हिंसा का अनर्थकारी स्वरूप जानने वाला श्रावक समझता है कि, 'जीवन इस प्रकार से जीना चाहिए कि जिसमें किसी भी प्रकार की हिंसा हो ही नहीं; परंतु अभी मुझ में ऐसे सत्त्व, वैराग्य आदि गुण नहीं है कि मैं सर्वथा द्रव्य और भाव हिंसा का त्याग कर सकूँ, तो भी सर्व प्रकार की हिंसा को त्यागने का सत्त्व मुझ में प्रकट हो, इसलिए मैं मेरी शक्ति के अनुरूप व्रत स्वीकार करूँ'। ऐसी भावना से संपूर्ण अहिंसक भाव को प्राप्त करने के लक्ष्यपूर्वक बादर जीवों की हिंसा से बचने के लिए श्रावक इस प्रकार की प्रतिज्ञा करता है, मैं इस जीव को मारूं, ऐसा संकल्प करके निरपराधी, त्रसजीवों की निष्कारण, निरपेक्ष भाव से हिंसा नहीं करूंगा।' ऐसी प्रतिज्ञा का स्वीकार ही स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत हैं। शास्त्र में इसे सवा वसा की अर्थात् १०० प्रतिशत की अपेक्षा ६.२५ प्रतिशत की दया कहते हैं। वह इस तरह - सवा वसा की दया :
इस जगत में जीव दो प्रकार के हैं : त्रस और स्थावर। जो जीव अपनी इच्छानुसार सुख-दु:ख के संयोगों में हलन-चलन कर सकते हैं, उन्हें त्रस जीव कहते हैं; जो जीव इस तरह हलन-चलन नहीं कर सकते, उन्हें स्थावर जीव कहते हैं। ये स्थावर जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के भेद से पाँच प्रकार के हैं एवं बेइन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस हैं। इन सभी प्रकार के जीवों में से जीवन निर्वाह के लिए स्थावर की हिंसा अनिवार्य बन जाने से श्रावक उस का त्याग नहीं कर सकता। इसलिए उनमें जयणा (सावधानी, छूट) रखकर वह त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करता है। इस प्रकार त्रस और स्थावर दोनों की हिंसा में से मात्र त्रस जीवों की हिंसा का त्याग होने से १०० प्रतिशत में से उसकी दया मात्र ५० प्रतिशत की हो जाती है।