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वंदित्तु सूत्र
विशेषार्थ :
में 1
पढमे अणुव्वयम्मी - प्रथम अणुव्रत सम्यक्त्वमूलक बारह व्रतों में 'स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत' प्रथम व्रत है। यह सब व्रतों में श्रेष्ठ एवं मुख्य व्रत है। इसलिए ही इस व्रत को प्रथम व्रत कहते हैं। इस व्रत के पालन से जो 'अहिंसक भाव' प्रकट होता है एवं उसकी जो उत्तरोत्तर वृद्धि होती है, वह अहिंसक भाव ही वास्तव में आत्मा का शुद्ध भाव है, क्योंकि इस शुद्धभाव से युक्त आत्मा रागादि भावों द्वारा स्वप्राण की भी हिंसा नहीं करती और अन्य को भी पीड़ा नहीं देती । पर आत्मा जब कर्म और कषाय के अधीन बनकर अशुद्ध बन जाती है, तभी वह स्व पर की भावहिंसा का कारण बनती है । शुद्ध अहिंसक भाव की सुरक्षा के लिए ही अन्य व्रतों का विधान है । खेत में पके हुए फल की सुरक्षा के लिए जैसे बाड़ की आवश्यकता होती है, वैसे ही 'अहिंसक भाव' की सुरक्षा के लिए ही बाकी के ग्यारह व्रतों का पालन बताया गया हैं।
थूलग-पाणाइवाय- विरईओ - स्थूल प्राणातिपात की विरति का उल्लंघन करने से
थूलग अर्थात् स्थूल, बड़ा । पाण अर्थात् प्राणों को धारण करने वाले जीव । अइवाय अर्थात् विनाश एवं विरई अर्थात् रूकना, अटकना या विराम पाना । इस तरह सामान्यतया मन-वचन-काया से जीवों की स्थूल हिंसा से अटकना अर्थात् वापस लौटने का संकल्प, स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत है।
हिंसा के प्रकार
जैन शासन में हिंसा के दो प्रकार बताए गए हैं :
१) द्रव्य हिंसा २) भाव हिंसा ।
१) द्रव्य हिंसा - जीवों के द्रव्यप्राणों का नाश करना यह जीव की द्रव्य हिंसा है। जीवों में अधिक से अधिक दस प्राण' होते हैं । उनमें से किसी भी प्राण का नाश करना या उसको हानि पहुँचाना द्रव्य हिंसा है।
1. स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय एवं श्रोत्रेन्द्रिय ये पाँच इन्द्रिय, मन-वचन एवं काया ये तीन बल, तथा आयुष्य एवं श्वासोश्वास - इस तरह जीवों के अधिक से अधिक दस प्राण होते हैं। उनमें एकेन्द्रिय जीवों के ४, बेइन्द्रिय के ६, तेईन्द्रिय के ७, चउरिन्द्रिय के ८, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के ९ एवं संज्ञी पंचेन्द्रिय के १० प्राण होते हैं।