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________________ दर्शनाचार गाथा - ६ चित्तवृत्ति का संस्करण : इस गाथा में बताए हुए अतिचारों को जानकर छोड़ना तो चाहिए ही, परंतु इसके उपरांत सम्यग्दर्शन गुण को प्रकट करने के लिए एवं प्रकट किए हुए इस गुण को निर्मल रखने के लिए नीचे बताए हुए मुद्दों पर खास ध्यान देने की ज़रूरत है। ७९ • किसी भी वस्तु या परिस्थिति को कभी एक ही दृष्टि से नहीं देखना चाहिए, परंतु अनेक दृष्टियों से उसका विचार करना चाहिए। किसी भी वस्तु या परिस्थिति को एकांत दृष्टि से देखने से कदाग्रह प्रकट होता है । कदाग्रह ही मिथ्यात्व हैं। उसके बदले अनेकांत दृष्टि से परिस्थिति या प्रसंग देखने में आए तो अन्य की अपेक्षाओं का ख्याल आने से राग-द्वेष जन्य कोई कदाग्रह नहीं होता, बल्कि समता एवं समभाव बना रहता है, जो सम्यक्त्व का प्रथम लिंग है। • कोई भी धर्म क्रिया, आत्मा के रागादि दोषों को टालकर, वीतराग भाव की तरफ जाने के लिए होती है । क्रिया करते करते आत्मा के कौन से दोष टले एवं आत्मा विभाव दशा को टालकर अपने स्वभाव की तरफ कितनी अभिमुख बनी, इसका सतत निरीक्षण चालू रखना चाहिए; क्योंकि खुद के गुण-दोषों का यथार्थ दर्शन ही सम्यग्दर्शन है। • शास्त्राभ्यास इस तरह से करना चाहिए कि जिससे हेय - उपादेय का विवेक ज्वलंत बने एवं आत्मादि तत्त्वों के प्रति रुचि, श्रद्धा, तीव्र बन जाए; क्योंकि तत्त्व रुचि ही सम्यग्दर्शन है। • सम्यग्दर्शन की कारणभूत प्रभुदर्शन आदि क्रियाएँ, ऐसे उपयोगपूर्वक करनी चाहिए कि जिससे भगवान में रहे हुए गुणों की तरफ आकर्षण बढ़े और आत्म स्वरूप का दर्शन हो; क्योंकि स्वस्वरूप के दर्शन के लिए किया हुआ प्रयत्न ही आत्मा को सम्यग्दर्शन तक ले जाता है। निर्विचारक रहना इसके उपरांत जिस तरीके से श्रद्धा दृढ़ हो उस तरीके से बारंबार तत्त्वों का चिंतन करना दर्शनाचार है एवं ऐसे आचार का पालन न करना, या विपरीत आचरण करना, ये सब सम्यक्त्व के अतिचार हैं।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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