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________________ अवर अनादि नी चाल नित-नित त्यजीयेजी... आत्मा अनंत ज्ञानमय है, अनंत आनंद का पिंड है। अनंत सुख इसका स्वभाव है, तो भी अनादि से उलटी चाल के कारण आत्मा का यह स्वरूप कर्म से आवृत हो गया है। आवृत इस स्वरूप को प्रकट करने के लिए ही प्रभु ने साधना मार्ग बताया है। विविध प्रकार की इस साधना में सर्वश्रेष्ठं साधना सामायिक एवं प्रभु वंदना की है। उसे हम सूत्र संवेदना भा. १-२ में देख आए। साधक सामायिक, चैत्यवंदन वगैरह अनुष्ठान द्वारा परमात्मा जैसे ही अपने शुद्ध स्वरुप को प्रकट करने का सतत यत्न करता है, परन्तु उसे क्वचित से ही सफलता मिलती है, क्योंकि अपनी क्या/कहाँ भूल होती है वह साधक जान नहीं सकता। मूल में उसके पास अपना निरीक्षण कर सके वैसी अंतर्दृष्टि नहीं होने के कारण वह स्वभाव की ओर तीव्रता से चल नहीं सकता। 'प्रतिक्रमण' की क्रिया साधक को यह दृष्टि देती है। जैन शासन की यह अनुपम क्रिया साधक को दोषों का दर्शन करवाकर शुद्धि का मार्ग बताती है। सूत्र संवेदना के आगे के तीन भागों में उस प्रतिक्रमण को ही समझने का प्रयत्न करना है। प्रतिक्रमण की क्रिया के लिए ज्ञानी भगवंतों ने एक नहीं परन्तु छोटे बड़े अनेक सूत्रों की रचना की है। इन सब सूत्रों के लिए 'सूत्र संवेदना' को तीन भागों (३-४-५) में विभाजित किया है। उसमें भी ‘वंदित्तु' सूत्र की वाचना चालु होने के कारण अनेक जिज्ञासु साधकों की माँग को लक्ष्य में रखकर, 'वंदित्तु' सूत्र का विस्तृत अर्थ समझानेवाला चौथा भाग पूर्व में ही प्रकाशित हो गया है। प्रतिक्रमण क्या है ? उसका अधिकारी कौन है ? वगैरह प्रतिक्रमण संबंधी अनेक विषयों की भाग ४ में संकलना की है। इसलिए इस भाग में उसका पुनरावर्तन नहीं किया। इस तीसरे भाग में तो प्रतिक्रमण की क्रिया करने के लिए जरूरी ऐसे 'वंदित्तु' सूत्र के पूर्व के सात सूत्रों का ही वर्णन
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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