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अठारह पापस्थानक सूत्र
यह तो जीव की खुद की कल्पना से है । ऐसा होते हुए भी मिथ्यात्व के उदय के कारण जीव काल्पनिक, भौतिक सुख को प्राप्त करने एवं काल्पनिक दुःख को टालने के लिए हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापों को करते हुए भी घबराता नहीं । खुद के ऐसे आचरण से भविष्य में कैसे विपरीत परिणाम आएंगे, उसका वह विचार भी नहीं करता ।
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इसके अलावा, मिथ्यात्व नाम के पाप के कारण आत्मा का परिचय करनेवाले, सच्चे सुख की राह बतानेवाले सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म को भी जीव नहीं स्वीकारता एवं भौतिक सुख की राह बतानेवाले कुदेव, कुगुरु एवं कुधर्म की तरफ वह दौड़ता है । कभी पुण्योदय से सुगुरु आदि की प्राप्ति हो जाए तब भी उनसे आत्मिक सुख को पाने की इच्छा न रखते हुए, वह सद्गुरु से भी भौतिक सुख की ही अपेक्षा रखता है। कभी धर्म करता है तो भी मात्र इस लोकपरलोक के काल्पनिक सुख के लिए ही करता है, आत्मा के सुख के लिए या आत्मा के आनंद के लिए नहीं करता ।
जैसे शल्यवाले स्थान में बनाई हुई सुन्दर ईमारत भी जीव को सुख नहीं दे सकती, वैसे ही अंदर में रहा हुआ मिथ्यात्व नाम का शल्य जीव को सच्चे सुख का आस्वाद करने नहीं देता । आत्मा में पड़ा हुआ यह मिथ्यात्व का कांटा जब तक न निकले, तब तक जीव को कोई भी पाप वस्तुतः पापरूप नहीं लगता, पापमय संसार असार नहीं लगता एवं कर्म के कारण भवभ्रमण की अनेक विडंबनाएँ भुगतनी पड़ेंगी, ऐसा भी उसे नहीं लगता । परिणाम स्वरूप वह कर्म बंध के प्रति सावधान नहीं रहता एवं हिंसा तथा अन्य पापों से रुकता नहीं, आत्मा के लिए उपकारक सुदेव की सुदेवरूप से भक्ति नहीं करता, सुगुरु को खोजकर उनके पास से सच्चे सुख की राह समझता नहीं, धर्म का उपयोग भी संसार से मुक्त होकर मोक्ष पाने के लिए नहीं करता । इसलिए शास्त्रकारों ने सब से बड़ा पाप-‘मिथ्यात्व' माना है । वह सब पापों का मूल है, सर्व दुःखों का कारण है एवं संसार के सृजन में सब से बड़ा हिस्सा इसका है । सबसे अधिक स्थितिवाला कर्म बंधवानेवाला भी यह मिथ्यात्व ही है । कर्म के प्रवाह को बहते रखने का काम यह मिथ्यात्व ही करता है । इस कारण से सद्गुरु के शरण को