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________________ १५८ सूत्रसंवेदना-३ बीजे मृषावाद : पाप का दूसरा स्थानक 'मृषावाद' है । मृषा अर्थात् गलत एवं वाद अर्थात् बोलना । गलत बोलना - झूठ बोलना मृषावाद नाम का दूसरा पाप स्थानक है। वस्तु या व्यक्ति जैसा है उससे विपरीत उसे बताना या उसके यथार्थ (सत्य) स्वरूप का वर्णन भी किसी का अहित हो उस तरह करना मृषावाद है । जैसे कि, कषाय के अधीन होकर अच्छे इन्सान को खराब कहना अथवा शिकारी पूछे कि हिरण किस दिशा में गया ? तब हिरण का हिताहित सोचे बिना यथार्थ उत्तर देना, क्रोधादि कषाय के अधीन होकर सामनेवाले व्यक्ति की वेदना का विचार किए बिना अंधे को अंधा या मूर्ख को मूर्ख कहना भी मृषावाद है । शब्दादि विषयों के अधीन होकर, कषायों के परवश होकर, विकथा के रस में लीन बनकर या अधिक बोलने की बूरी आदत के कारण, सोचे बिना जो व्यक्ति मन में आए वो बोला करते है, वे प्रायः इस पाप से नहीं बच सकते। सावधान न रहें तो व्यवहार में छोटी छोटी बातों में, कई स्थानों पर इस तरीके से असत्य बोला जाता है । अपने से कभी गलत न बोला जाए, मृषावाद भाषा का पाप न लग जाए, ऐसी सावधानी रखकर जो विचार करके बोलते हैं, वे ही इस पाप से बच सकते हैं । इसलिए शास्त्रकारों ने बताया है कि, आत्महित के इच्छुक साधकों को आवश्यकता के बिना बोलना ही नहीं चाहिए एवं जब बोलना पड़े तब भी स्वपर के हित का विचार करके प्रमाणित शब्दों में एवं सामनेवाले व्यक्ति को रुचिकर हो उतना ही बोलना चाहिए । यह पद बोलते समय दिन के दौरान क्रोधादि कषायों के अधीन होकर, विकथा करने में लीन होकर या विषयासक्त बनकर, छोटे से छोटे विषय में भी कहाँ मृषा बोला गया ? पुण्य से मिले हुए वचन योग का कितना दुरुपयोग हुआ ? उसका विचार कर पुनः वैसा न हो वैसे परिणामपूर्वक ‘मिच्छा मि दुक्कडं' देना चाहिए ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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