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जान सकी हूँ, उनमें से कुछ भावों को इस पुस्तक में, सरल भाषा में सुबद्ध करने का प्रयत्न किया है। ज्ञान की अपूर्णता एवं अभिव्यक्ति की अनिपुणता के कारण मेरा यह लेखन बिल्कुल त्रुटि मुक्त और सर्व को स्पर्श वैसा ही होगा, वैसा तो मैं दावा नहीं कर सकती फिर भी इतना जरूर कह सकती हूँ कि, इसमें लिखे हुए भावों को हृदयस्थ कर जो प्रतिक्रमण की क्रिया करेगा उसका प्रतिक्रमण पहले से जरूर अच्छा होगा। ___ भगवान की आज्ञा के विरुद्ध या सूत्रकार के आशय विरूद्ध जो कुछ लिखा गया हो तो उसके लिए मैं 'मिच्छामि दुक्कडं' मांगती हूँ। साथ ही बहुश्रुतों को प्रार्थना करती हूँ कि, उनकी दृष्टि में यदि कोई कमी दिखे तो बिना संकोच मुझे बतायें।
अंत में मेरी एक भावना व्यक्त करती हूँ कि, हम सब इस पुस्तक के माध्यम से मात्र प्रतिक्रमण के अर्थ की विचारना करने में ही पर्याप्ति का अनुभव न करें, परन्तु उसके द्वारा अनादिकाल से जमी हुई पाप वृत्ति के कुसंस्कारों का नाश कर शीघ्र आत्म कल्याण साध सकें। वि.सं. २०६३, आ.सु. १०, परम विदुषी शताधिक शिष्याओं की ता. २१-१०-२००७ योग क्षेमकारिका प.पू. चंद्राननाश्रीजी म.सा. 'सुधा कलश',
की शिष्या सा. प्रशमिताश्रीजी अठवा लाइन्स सूरत
वि.सं. २०५७ की साल में सु. सरलाबहेन के आग्रह से यह लेखन कार्य शुरु किया था। आज देव-गुरु की कृपा से सूत्र संवेदना का वाचक वर्ग काफी विस्तृत हुआ है। गुर्जर भाषा की छठ्ठी आवृत्ति प्रकाशित हो रही है।
इस हिन्दी आवृत्ति की नींव है - सुविनित ज्ञानानंदी सरलभाषी स्व.सा. श्री विनीतप्रज्ञाश्रीजी जो खरतरगच्छीया विदुषी सा. हेमप्रभाश्रीजी म.की शिष्या हैं।