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________________ वेयावच्चगराणं सूत्र ३२३ भगवंत आदि कारण हैं, वैसे शुभानुष्ठान में आनेवाले विनों को दूर करके शुभभावों में टिकाने का काम सम्यग्दृष्टि देव भी करते हैं, इसलिए इस प्रसंग पर जैनशासन की वैयावच्च करनेवाले और शांति और समृद्धि देनेवाले देवों को याद करना भी अपना कर्तव्य है । इस प्रकार अपना औचित्य समझकर, उसके पालन के लिए इस मंत्र से सम्यग्दृष्टि देवों का स्मरण करने के लिए कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा की जाती है । यह सूत्र देववंदन तथा प्रतिक्रमण की क्रिया में बोला जाता है । मूल सूत्र : वेयावञ्चगराणं संतिगराणं सम्मद्दिट्ठि-समाहिगराणं । करेमि काउस्सग्गं । अन्वय सहित संस्कृत छाया और सूत्रार्थ : वेयावञ्चगराणं संतिगराणं सम्मद्दिट्ठि-समाहिगराणं काउस्सग्गं करेमि । वैयावृत्त्यकराणां शांतिकराणां सम्यग्दृष्टि-समाधिकराणां (निमित्तं) कायोत्सर्ग करोमि । वेयावच्च करनेवाले, शांति करनेवाले और सम्यग्दृष्टि जीवों को समाधि दिलानेवाले देवों के स्मरण के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। विशेषार्थ : वेयावञ्चगराणं - वेयावच्च करनेवाले (देवों के स्मरण के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।) वेयावच्च अर्थात् व्यापृतभाव' अथवा व्यावृत्तभाव । व्यापृत अर्थात् क्रियाशील रहना । किसी की सेवा करने के व्यापारवाला रहना, वेयावच्च है । जैनशासन में जहाँ जिस प्रकार ज़रूरत हो, वहाँ उस तरह व्यापार वाला रहना, उसका ही नाम 'वेयावच्च' है और दूसरे तरीके से सोचे तो 1 व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्त्यम् ।। पंचाशक टीका
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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