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________________ भूमिका लिए प्रयत्न करता है । जैसे धान्य का अर्थी वर्षाकाल में खेती के लिए प्रयत्न करता है, वैसे ही चैत्यवंदन के सूत्रों के अर्थ जाने की इच्छावाले भी योग्य समय पर ही पढ़ने की इच्छावाले होते है अर्थात् अकाल में अध्ययन न करना और काल में अवश्य अध्ययन करना यह सत्काल की अपेक्षा है । इस प्रकार समय को समझनेवाले ही समर्थ माने जाते हैं । ३. उचित आसन : सूत्र ग्रहण की विधि में परायण साधक, श्रुत ग्रहण के लिए जो उचित आसन हो, उस आसन में ही बैठते हैं । ४. युक्तस्वरता : व्यवहार को जाननेवाले व्यवहार में प्रसंगानुसार योग्य तरीके से बोलते हैं, वैसे ही विधि परायण आत्माएँ भी चैत्यवंदन के सूत्रों के ह्रस्व, दीर्घ, संयुक्ताक्षर आदि का ध्यान रखते हुए, उपयोग पूर्वक, किसी की भक्ति में विघ्न डाले बिना और अपने भाव को सुरक्षित रखते हुए धीर गंभीर और मंद स्वर में बोलते हैं । ५. पाठोपयोग : विधि परायण आत्माएँ चैत्यवंदन के सूत्रों को बोलते समय उपयोग वाली होती हैं, उसके सिवाय जहाँ-तहाँ उपयोग वाली नहीं होती । विधि परायण आत्माओं में उपर्युक्त पाँच लक्षण देखने को मिलते हैं । इन लक्षणों के द्वारा जीव में सूत्रादि के लिए अपेक्षित सामर्थ्य है या नहीं उसका निर्णय करके उसको सूत्रादि प्रदान करना चाहिए । सूत्रादि धर्म के प्रति बहुमान वाली आत्मा विधि में परायण होती है और विधि में परायण आत्मा हमेशा इस लोक संबंधी कार्य में और परलोक संबंधी कार्य में अपने औचित्य का विचार करके ही प्रवृत्ति करती है । सूत्र ग्रहण करनेवाली आत्मा में ऐसा औचित्य है कि नहीं, इसका निर्णय करने के लिए शास्त्र में उचित प्रवृत्ति के ये पाँच लक्षण बताएँ हैं -
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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