________________
३०३
पुक्खरवरदी सूत्र वास्तविकता होने के बावजूद कुमत के संस्कारों के कारण उसमें हमें अन्य के ही दोष दिखाई देते हैं, ऐसी परिस्थिति होने से श्रुतस्त्वना के अंत में साधक प्रार्थना करता है,
“हे प्रभु ! कुमत के संस्कारों का नाश करते हुए मुझमें श्रुतधर्म की वृद्धि हों । जैसे-जैसे मैं शास्त्रों का अध्ययन करूँ, श्रुतज्ञान की प्राप्ति के लिए स्वाध्यायादि करूँ, एक-एक पद पर गहरी अनुप्रेक्षा करूँ, वैसे-वैसे कुमत के संस्कार मंद होते जाए, मेरे अंतर से कुमत का साम्राज्य हटता जाए, इस प्रकार यदि श्रुतज्ञान की वृद्धि हो, तो ही सच्ची समझ प्राप्त होगी। सच्ची समझ द्वारा श्रद्धा तीव्र बनेगी और तीव्र श्रद्धा द्वारा मैं सम्यग्दर्शन आदि गुणों को प्राप्त कर सर्वविरति तक पहुँच सकूँगा । __ प्रभु ! इसलिए आज आप से प्रार्थना करता हूँ कि केवलज्ञान की प्राप्ति न हो, तब तक सदैव इस महाप्रभावशाली श्रुतज्ञान की मुझमें वृद्धि हो। हे प्रभु ! वाचनादि द्वारा प्राप्त होनेवाले श्रुतज्ञान से मुझे श्रुत के सूक्ष्म भावों को देखने की क्षमता प्राप्त हो ।”
इस तरह भावपूर्ण हृदय से प्रार्थना करने से ज्ञानावरणीयादि कर्मों का क्षपोपशम होता है और साधक श्रुतज्ञान द्वारा केवलज्ञान तक पहुँच सकता है।
धम्मुत्तरं वड्डउ - (चारित्र) धर्म के उत्तर में (भी श्रुत धर्म की) वृद्धि हो। 'ज्ञानस्य फलं विरति' ज्ञान का फल विरति है । सम्यक् श्रुतज्ञान का फल सर्वविरति की प्राप्ति है और सर्वविरति का फल केवलज्ञान की प्राप्ति है। केवलज्ञान की प्राप्ति में श्रुतज्ञान परम सहायक तत्त्व है । इसीलिए साधक 'मेरा श्रुतज्ञान बढें' ऐसी प्रार्थना करने के बाद भी आगे प्रार्थना करता है कि, 'हे प्रभु ! सर्वविरति की प्राप्ति के बाद मैं कहीं प्रमाद के अधीन न बनूँ, उसके लिए आपको विनती करता हूँ कि चारित्रधर्म प्राप्त